Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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उन्तीस
'नामार्थ-विचार' तथा 'वृत्ति-विचार' नामक प्रकरणों से लगभग अभिन्न हैं। इस विषय में आगे के पृष्ठों में दोनों ग्रन्थों की तुलना प्रस्तुत की जा रही है।
परमलघुमंजूषा पर वैयाकरणभूषणसार का प्रभाव-कौण्ड भट्ट, भट्टोजि दीक्षित के भाई, रंगोजि भट्ट के पुत्र तथा सुरेश्वर के शिष्य थे दूसरी ओर नागेश भट्ट, भट्टोजि दीक्षित के पौत्र, हरि दीक्षित के शिष्य थे। इस प्रकार कौण्ड भट्ट तथा नागेश भट्ट दोनों ही लगभग समकालीन हैं पर कौण्ड भट्ट नागेश भट्ट से निश्चित ही पूर्ववर्ती हैं। कौण्ड भट्ट के समय की अन्तिम सीमा १६५०-१६६० ई० मानी जाती है जबकि नागेश भट्ट के समय की अन्तिम सीमा १६७०-१६८० ई० मानी गई है।'
कौण्ड भट्ट के दोनों ग्रन्थों-वैयाकरणभूषण तथा उसके संक्षिप्त रूप वैयाकरणभूषणसार-में व्याकरण दर्शन के लगभग उन्हीं विषयों पर विचार किया गया है जिन पर बाद में नागेश भट्ट ने अपने वैसिम० तथा वैसिलम० ग्रन्थों में विशेष विस्तार से विचार किया है। नागेश ने इन ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर कौण्ड भट्ट के कुछ विचारों का खण्डन भी किया है। परमलधुमंजूषा में भी कुछ स्थलों पर भी वैयाकरणभूषणसार के कुछ मन्तव्यों का खण्डन अप्रत्यक्षरूप से किया गया है। उदाहरण के लिए निम्न स्थल द्रष्टव्य है : ----
'धात्वर्थनिरूपण' के प्रकरण में 'केचित्' सर्वनाम के द्वारा कौण्ड भट्ट अभिमत 'सिद्धत्व' तथा 'साध्यत्व' की परिभाषा देकर उससे सहमत न होते हुए नागेश ने 'वस्तुतः साध्यत्वं निष्पाद्यत्वम् एव' इन शब्दों में 'साध्यत्व' की अपनी परिभाषा भी दी है। इसी प्रकार 'सकर्मक', 'अकर्मक की कौण्ड भट्ट द्वारा निर्धारित परिभाषा को लिखकर उसका खण्डन करते हुए पुन: अपनी परिभाषा को "वस्तुतस्तु अकर्मकत्वम्' इन शब्दों में प्रस्तुत किया है (द्र० पूर्व पृष्ठ १४३-४६, १४८-५१)।
निपातार्थनिरूपण' के प्रकरण में नैयायिकों के 'निपात अर्थ के वाचक होते हैं। इस सिद्धान्त के निराकरण के लिए कौण्ड भट्ट द्वारा किए गये आक्षेपों को 'केचित् शाब्दिकाः...इत्यापत्तिः' द्वारा प्रस्तुत करके "तन्न क्व षष्ठ्यापादनम्” इन शब्दों में स्पष्टतः नागेश ने खण्डन किया है (द्र० पूर्व पृ०१८२-८८) ।
'कारक-निरूपण' के प्रकरण' में 'अपादान' कारक की परिभाषा पर विचार करते हुए 'परस्परस्मान्मेषावपसरतः' इस प्रयोग में 'अपसरतः' क्रिया के सम्बन्ध में कौण्ड भट्ट अभिमत दो प्रकार की गति-विषयक मान्यता का भी नागेश ने, महाभाष्य के प्रामाणिक वक्तव्य के आधार पर, खण्डन कर दिया है (द्र० पूर्व पृष्ठ ३६३-६५) ।
परन्त वैभसा० तथा पलम के तुलनात्मक अध्ययन से यह सर्वथा स्पष्ट है कि पलम० का पूर्वार्ध, अर्थात् ग्रन्थ के प्रारम्भ से 'निपातार्थ-निर्णय' तक का अंश ही वैसिलम० का संक्षिप्त रूप है। यद्यपि इस भाग में भी पलम० की अनेक पंक्तियाँ
१. पी०के० गोडे-स्टडीज इन इण्डियन लिटरेरी हिस्टरी, भाग ३, पृ० २०६-११ ।
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