Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ पाशवद्धमृगावस्थानिरूपणम् २८५ अन्यथाभावं गतो वारं वारं तत्र निपत्य दुःखमेव प्रामोति, न कदाचिदपि ततो विमुच्यते अपि तु तत्रैव परिपच्यते इति संक्षेपः ॥ ८ ॥
कूटपाशादिकमजानन् मृगो यादृशीमवस्थामनुभवति, तादृशीमवस्थां दर्शयितुमाह- 'अहि अप्पा' इत्यादि ।
२.
मूलम्
अहिअप्पाहियपण्णाणे, विसमतेणुवागए। . स वद्धे पयपासेणं तत्थ घोयं नियच्छइ ॥ ९॥
छाया- अहितात्माऽहितप्रज्ञानो विपमांतेनोपागतः ।
स वद्धः पदपाशेन- तत्र घातं नियच्छति ॥९॥ से निकल जाए तो पाशजनितः ताडना मृत्यु आदि के कष्ट को प्राप्त न हो, परन्तु वह ऐसा करता नहीं है, बल्कि इसके विपरीत अन्यथाभाव को प्राप्त होकर उस वन्धन में पडकर वार वार दुःख प्राप्त करता है वह दुःख से छुटकारा नहीं पाता है। वहीं पचता रहता है ॥८॥
कूटपाश को न जानने वाले मृग कैसी दशा का अनुभव करता है, उसे दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-"अहि अप्पा" इत्यादि ।
शब्दार्थ-'अहिअप्पा-अहितात्मा' आत्महितको नहीं जानने वाले 'अहियपण्णाणेअहितप्रज्ञान:' सम्यक् ज्ञान से रहित'विसमंतेणुवागए-विपमान्तेनोपागतः कूटपाशादियुक्त विपम प्रदेशमें प्राप्त होकर 'स-स' वह मृग 'पयपासेणं-पादपाशेन' पदवन्धके द्वारा 'वद्ध-बद्धः' वद्धहोकर 'तत्थ-तत्र' उस कूटपाशमेही 'घायं घातम्' विनाशको 'नियच्छइ-नियच्छति, प्राप्त होता है अर्थात् मृत्युपर्यंत वहासे निकलसकतानहीं है ।।९।। ઉલટ તે ઘભરાટને કારણે એવુ વિપરીત વર્તન કરે છે કે તેનુ બન્ધન વધારેને વધારે પ્રગાઢ બનતું જાય છે તે કારણે તે તેમાથી મુક્ત થઈ શકતું નથી, પરંતુ તેમાં જ પડ્યું રહે છે અને આખરે મોતને ભેટે છે. ૮ | ફૂટ પાશને ન જાણનારૂ મૃગ કેવી દશાને અનુભવ કરે છે, તે સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે "अहि अप्पा छत्यादि
watथ----'अहिअप्पा अहितात्मा' आत्महितने न तना२। 'अहियपण्णाणे-अहितप्रज्ञान' सभ्य भान विनाना 'विसमतेणुवागए-विषमान्तेनोपागत' फूट पाया युत विषय प्रदेशमा प्राप्त थने तस-स' ते भृग ‘पयपासेण -पादपाशेन' ५४ ५ धन थी 'वध्धे बद्ध ' प य ने 'तत्य-तत्र' को छूट पाशमा १ 'घाय घातम्' विनाश ने 'वियच्छइ-निय छति' प्रात थाय छे. अर्थात् भ२५ पर्यन्त त्याथी छूरी शता नथ६॥