Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 661
________________ समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २ उ ३ साधूनां परीपहोपसर्ग सहनोपदेश' ६४९ रुदन्ति, नरकनिगोदादौ अनन्तकालं परिभ्रमति च, अतो विषयसेवनं न कर्तव्यम् । विषयसेवनेनैव विपयिणां जीवानां जन्ममरणादयो भवन्तीत्यादिरूपेण आत्मनोऽनुशासन विधेयमिति भावः ॥७॥ पुनरपि समुपदिशति-'इह' इत्यादि । १२ इह जीवियमेव पासहा तरुणए वाससयस्स तुट्टइ। ८ १० ९ ११ । १२ इत्तरवासे य बुझह गिद्ध नरा कामेसु मुच्छिया ॥८॥ छायाइह जीवितमेव पश्यत तरुणक वर्षशतस्य त्रुटयति । इत्वरवासं च बुध्यध्वं गृद्धनरा कामेपु मूछिताः ॥८॥ विरोधी कामभोगों का सेवन करने वाले जीवों को बहुत शोक करना पडता है, अनेको वार रुदन करना पड़ता है और अनन्त काल तक नरकनिगोद आदि में परिभ्रमण करना पडता है । अतएव विषयों का सेवन नहीं करना चाहिये। विपयसेवन से ही जीवों को जन्म मरण करना पड़ता है । इस प्रकार आत्मा का अनुशासन करना चाहिये ॥७॥ पुनः उपदेश करते हैं --- "इह” इत्यादि । शब्दार्थ-'इह-इह' इस लोक में 'जीविययेव-जीवितमेच' जीवन को ही 'पासहा-पश्यत' देखो 'वारासयस्स-वर्पशतस्य' सौ वर्षकी आयुवाले पुरुषका भी जीवन 'तरुणए-तरुणे युवावस्था में ही 'तुट्टइ-टयति' नष्ट हो जाता है यह जीवन को 'इत्तरवासे य-इत्वरवासं च' थोडे दिनके निवास तुल्य 'वुज्झह-वुध्यध्वम्' समजो 'नरा-नराः' क्षुद्र मनुष्य 'कामेसु-कामेपु' शब्दादि તેમને નરકાવાસમા અસહા ત્રાસ આપવામા આવે છે, એવા જીને અન ત કાળ સુધી નરક નિગોદ આદિ દુર્ગતિમાં ભ્રમણ કવુ પડે છે તેથી વિષયેનું સેવન કરવું જોઈએ નહીં વિષયાનુ સેવન કરવાથી જ જીવને જન્મ મરણ કરવા પડે છે. આ પ્રકારે આત્માનું અનુશાસન કરવુ જોઈએ ગાથા ૭ मा पहेश मापता सूत्रा२ छ - " इह" या शा-'इह-इह' सोभा 'जीवियमेव-जीवितमेव' बनने 'पासहापश्यत' व 'वाससबस्स-वशतस्य' सोवनी आयुष्यात ५३षनु पए वन 'तरुणए-तरुणे' युवान अवस्थामा १८ 'तुट्टइ-त्रुटयति' नट तय छ । वनने 'इत्तवासे य-इत्तरवाल च' यो विसना निवास तुझ्य 'वुमह-बुध्यध्वम् સુ ૮૨

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