Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 667
________________ समयार्थ वोधिनी टोका प्र श्रु अ. २ उ ३ साधूनां परिपहोपसर्ग सहनोपदेश ६५५ अन्वयार्थः'जीवियं' जीवितम् 'संखयं' संस्कार्यम् (ण य आहु) न चाहुः=न कथयन्ति त्रुटितसूत्रवत्संधातुं न शक्यते जीवतमित्यर्थः,(तह वि य)तथापि च(बालजणो)वाल जनोऽज्ञानी (पगभइ) प्रगल्भते-पापकर्मणि धृष्टो भवति, म चाज्ञ एवं चक्ति'पच्चुप्पन्नेन कारियं प्रत्युत्पन्नेन कार्यम्-वर्तमानकालवर्तिना मुखेनैव कार्यम् प्रयोजनम् (परलोयं) परलोकं नरकादिकं स्वर्गादिकं वा (दहें) दृष्ट्वा (को)कः (आगए) आगतः इति ॥१०॥ शब्दार्थ-'जीवियं-जीवितम्' जीवनको संखयं-संस्कारर्यम्' संस्कार करने योग्य ‘ण य आहु-नचाहुः सर्वज्ञों ने नहीं कहा हैं अर्थात् त्रुटित सूत्र के जैसे सांधने योग्य नहीं है 'तह वि य-तथापि च' तोभी 'वालजणो-बालजनः अज्ञानी पुरुप 'पगभइ-प्रगल्भते' पाप कर्म करने में धृष्टता करते हैं वे ऐसा कहते हैं कि 'पच्चुपन्नेन कारियं-प्रत्युत्पन्नेन कार्यम्' वर्तमान मुख का ही मुझे प्रयोजन है 'परलोयं-परलोकम्' नरकादिक स्वर्गादिक परलोकको 'दटुं दृष्ट्वा' देख कर 'को-क:' कौन 'आगए-आगतः' आया है ॥१०॥ -अन्वयार्थजीवन संस्कार्य नहीं है अर्थात् टूटे हुए धागे के समान पुनः जोड़ा नहीं जा सकता ऐसा तीर्थकर भगवान् कहते हैं फिर भी अज्ञानी जन पापकर्म करने में धृष्टता करते है । वे कहते हमें तो बत्तमानकालीन सुख से ही प्रयोजन है, स्वर्ग नरक आदि परलोक कौन देख कर आया है ? ॥१०॥ शहाथ-'जीविय-जीवितम्' उपनने 'स खय-स स्कार्यम' सार ४२वा याज्य 'ण य आहु-न चाहु' सर्वज्ञाये ४९स नथी अर्थात त्रुटित सूतरनी साधना योग्य नथी 'तहवि य-तथापि च त ५ 'वालजणो-चालजन' मानो पु३५ 'पगभइ-प्रगभते' पा५ ४ ४२वामा पृष्टता ४२ छ, तेसो से छे थे 'पच्चुपन्नेन कारियप्रत्युत्पन्नेन कार्यम्' वतमान सुमनु भने प्रयान छे 'परलोय-परलोकम् नई पगेरे स्वावगेरे ५२स ने 'दछु-दृष्ट्रवा' ने 'को-क' और 'आगप-आगत' આવ્યું છે કે ૧૦ છે सूत्रायः (१०) જીવન સંસ્કાર્ય નથી એટલે કે તટેલા દોરાની જેમ ફરી સાધી શકાય એવું નથી, છતા પણ અજ્ઞાની પુરુષે પાપકર્મ કરતા લજ્જા કે સ કેચ અનુભવતા નથી તેઓ એવું કહે છે કે અમારે તે વર્તમાનકાલીન સુખનું જ પ્રજન છે, સ્વર્ગ, નરક આદિ પલેક કણ જેઈને આવ્યું છે, છે ૧૦

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