Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 664
________________ - - - - - - मृतास्त्र एतादृशीमवस्थां संपश्यन्तोऽपि क्षुद्रमनुजा विषयभोगेपु आसक्त। भूत्वा नरकादियातनास्थानं लभन्ते इति भावः ॥८॥ मूलम् --- जे इह आरंभनिस्सिया आत्तदंडा एगंतलूसगा। गंता ते पावलोगयं चिररायं आसुरियं दिसं॥९॥ छाया य इह आरंभनिश्रिता आत्मदण्डा एकान्तलूपकाः । गन्तारस्ते पापलोककं चिररात्रमामुरिकां दिशम् ॥९॥ कालीन निवास जैसी ही है । आयु की ऐसी दशा देखते हुए भी जो जीव क्षुद्र हैं वेही विषयभोगों में आसक्त होकर नरक आदि यातना स्थानों को प्राप्त करते हैं |८|| शब्दार्थ-'इह-इह' इस लोकमें 'जे-ये जो मनुष्य 'आरंभनिस्सिया-आरम्भनिश्रिताः' हिसादि सावद्य अनुष्ठानों में आसक्त हैं 'आत्तदंडा-आत्मदण्डाः' आत्माको दंड देनेवाले 'एगंतरासगा-एकान्तलूपकाः, और एकान्तरूपसे प्राणि यों के घातक हैं 'ते-ते' वे पुरुप पावलोयं-पापलोकम्' पापलोक अर्थात् नरकमें 'चिररायं-चिररात्रम्' बहुतकाल पर्यन्त 'गंता-गन्तारः' जाने वाले होते हैं और 'आसुरियं दिसं-आसुरी दिशम्' आसुरी दिशामें जाते हैं अर्थात् देवाधम होते हैं ॥९॥ (જીવનને) અ૫કાલીન નિવાસ સમાન સમજીને માણસે સયમમાં પ્રવૃત્ત થવું જોઈએ અને ચિન્તામણિ જેવા મનુષ્ય જીવનને સાર્થક કરવું જોઈએ પરંતુ આયુની આવી દશા દેખવા છતા પણ ક્ષુદ્ર જી વિષયભોગોમા આસક્ત થઈને આ મહામૂલા માનવ જીવનને વ્યર્થ ગુમાવી બેસીને નરકાદિ યાતના સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થઈને અસહ્ય દુખોનું વેદન કરે છે. ગાથા ૮ ! हाथ-'इह-इह' मा ४॥ 'जे-ये' मनुष्य 'आर भनिस्सिया-आरम्भनिश्रिता' सि पोरे साथ मनुष्ठानामा भासत छ 'आत्तदडा-आत्मदण्डा' मात्भाने 6 Aun 'एग तलूसगा एकान्तलूपका' मने आन्त३५थी प्राशियाना घात छ 'ते-ते' ते ५३५ ‘पावलोय -पापलोकम्' ५४ पर्थात् नभा 'चिरराय-चिररात्रम्' घा समय पर्यत 'ग ता-गन्तार' भयावा डाय छ 'आसुरिय दिस-आसुरी दिशम्' અથવા આસુરી દિશામાં જાય છે અર્થાત્ દેવાધમ થાય છે. તે ૯

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