Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताङ्गसूत्रे अथ प्रथमाऽध्ययने चतुर्थ उद्देशकः प्रारभ्यतेतृतीयोद्वेशे स्वसमयपरसमययोः प्रतिपादनं कृतं तत्सम्बन्धेनाऽत्रापि तदेव प्रतिपादयिष्यते, इति चतुर्थोद्देशकस्य प्रथमसूत्रमाह-'एए जिया' इत्यादि ।
मूलम्
एए जिया भो न सरणं, वाला पंडियमाणिणो । हिच्चा णं पुव्वसंजोगं, सिया कच्चोवएमगा ॥१॥
छाया
"एते जिता भोः न शरणं वालाः पण्डितमानिनः हित्वा खलु पूर्वसंयोग, सिताः कृत्योपदेशकाः ॥१॥
चौथे उद्देशक का प्रारंभ तीसरे उद्देशे में स्वसमय और परसमय का प्रतिपादन किया गया है। उस संबंध से यहां भी स्व पर समय का प्रतिपादन करेंगे। चौथे अध्ययन का प्रथम सूत्र कहते हैं- "एए जिया" इत्यादि ।
शब्दार्थ-'भो-भो' हे शिष्यो ! 'एए-एते ये अन्यतीर्थी 'वालाबालाः' तत्वज्ञानसे रहित होने पर भी 'पंडियमाणिणो-पण्डितमानिनः' अपने आत्माको पण्डित-तत्वज्ञ मानने वाले हैं अतएव वे 'जिया-जिताः' काम क्रोधादि से पराजित है अतः वे 'न सरणं-न शरणम्' शरण योग्य नहीं हैं कारण कि 'पुव्वसंयोगं-पूर्वसंयोगम्' स्वजन संबंधी जनों का सम्बन्धको 'हिच्चा णं-हित्वा खलु' त्याग करके भी 'कच्चोवएसगा-कृत्योपदेशकाः'
ચેથા ઉદ્દેશક ને પ્રારંભ ત્રીજા ઉદ્દેશકમાં સ્વસમય અને પરસમયનું પ્રતિપાદન કરવામા આવ્યુ આ ચેથા ઉદ્દેશકમાં પણ સ્વસમય અને પરસમયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવશે આ ચોથા ઉદ્દેશકનું पाउछु सूत्र २॥ प्रभारी छ- “एए 'जिया" त्याह- .
हार्थ – 'भो-भो शिष्यो । 'एए-एते' मा अन्य तथि 'बाला-चोला' तत्वज्ञानथी २हित छ त ५y ‘पंडियमाणिणो-पण्डि मानिनः' पाताने ५त-तत्वज्ञ भानवापामा छ मतमेव (५) तेमा 'जिया-जिता' अभय वगेरेथी ५२७ छे मत तसा 'न सरण' न शरणम्' श२५ योग्य नथी, २६ पुषस योग-पूर्व स योगम्' स्वान सपधारनानासमधने 'हिच्चा ण-हित्ग खलु'
त्याशने ५५ 'किच्चोवएसगा.