Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अन्वयार्थः
( एवं ) एवमनेन प्रकारेण (लोगंमि) लोकेऽस्मिन् (ताइणा) त्रायिना जीवर - क्षन (बुइए) उक्तः कथितः (जे) यः (अणुत्तरे) अनुत्तरः = सर्वोत्तमः (धम्मे ) धर्मः = प्राणातिपातादि विरमणलक्षणः तं (गिण्ह) गृहाण = स्वीकुरु (हियंति उत्तमं ) के दष्टान्तकी दाष्टन्तिक में योजना करते हैं
उपर्युक्त " एवं लोगंमि " इत्यादि ।
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सूत्रकृताङ्गसूत्रे
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शब्दार्थ - ' एवं-- एवम्, इसी प्रकार 'लोगंमि--लोके' इस लोक में 'ताइणा -- त्रायिना' जगत् की रक्षा करने वाले सर्वज्ञने 'बुइए - - उक्तः' कहा हुआ 'जेयः ' जो अणुत्तरे - अनुत्तरः, सर्वोत्तम 'धम्मे धर्मः 'धर्म प्राणातिपातादि विरमण 'तं - तम् ' उसको 'गिण्ह - - गृहाण ' ' ग्रहण करना चाहिए 'हियंति उत्तमं हितमुत्तमम्, यही हित करने वाला एवं उत्तम मार्ग है 'सेसऽवहाय -- शेषमपहाय ' चतुर जुआरी सब स्थानों को छोडकर 'पंडिए कडमिव -- पण्डितः कृतमिव' जैसे चतुर जुआरी कृतनामके चतुर्थ स्थान को ही ग्रहण करता है इसी प्रकार मेधावी मुनि अनुत्तम ऐसे धर्मको ही ग्रहण करते हैं ||२४||
अन्वयार्थ
इस प्रकार इस लोक त्राता अर्थात् जीवों के रक्षक तीर्थकर देवने, जो धर्म कहा है वही सर्वोत्तम धर्म है । उस प्राणातिपात विरमण आदि लक्षण वाले धर्म को हितकारी और उत्तम समझ कर और '
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अन्य धर्मों को
હવે સૂત્રકાર ઉપયુ ક્ત જુગારીના દૃષ્ટાન્ત દ્વારા જે વાતનુ પ્રતિપાદન કરવા માગે છે, तेरे छे - "एव लोग मि " इत्यादि
शब्दार्थ - 'पत्र - एवम्' मा अरे 'लोग मि-लोके' मा सोउभा 'तारणा - त्रायिना' Âतनी रक्षा ४२वा वाणा सर्वज्ञ ने 'वुइए-उक्त' आहेस 'जे-य' ? 'अणुत्तरे - अनुत्तर' सर्वोत्तम 'धम्मे-धर्म ' धर्म - प्राणातिपात विरभानुश्य धर्म छे 'त-तम्' तेने 'गिव्ह - गृहाण श्रड ४२वो ये 'हियति उत्तम - हितमुत्तमम्' मेन हित उरवावाणी मेवभू उत्तम भार्ग छे 'सेना - शेषमपहाय' मघा स्थानने छोडीने 'पडिए कडमच पण्डितः ધ્રુમિય' જેવી રીતે ચતુર જુગારી કૃત નામના ચેાથા સ્થાનને જ ગ્રહણ કરે છે, તેજ પ્રકારે મેધાવીમુનિ અનુત્તમ એવા ધર્મને જ ગ્રહણ કરે છે. ૫૨૪ા
सूत्रार्थ -
એજ પ્રકારે આ લેાકમા ત્રાતા (જીવાના રક્ષક) તી કર ભગવાને જે ધમ કહ્યો છે, એજ સર્વોત્તમ છે એજ પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ લક્ષણ વાળા ધર્મને હિતકારી