Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूयकृताङ्गसूत्रे कथ्यन्ते । तदुक्तम्-"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वा गच्छन्ति भूयोऽपि, भवतीर्थनिकारतः । इति ।११।।। . . . अथपुन स्तन्मतमेव प्रदर्शयति- "इहसंबुढे" इत्यादि ... :
मूलम्"इह संवुडे मुणीजाए, पच्छा होइ अपावए । वियडंबुजहो भुजो, नीरयं सरयं तहा-॥१२ ...
छाया"इह संवृतो मुनिर्जातः पथावत्यपापकः । ... .
विकटांवु यथा भूयो नीरजस्कं सरजस्कं तथा-॥१२ के कारण आत्मा फिर संसारसागर में आ जाती है । यह तीसरी राशि है। आत्मा पहले संसारी था, फिर मुक्त हो गया और संसारी (बद्ध) हो गया। ये त्रैराशिक यह तीन राशियाँ मानते हैं । उन के यहां कहा है- "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य" इत्यादि।
धर्मतीर्थ के कर्ता ज्ञानी पुरुप परमपद को प्राप्त होकर फिर अपने तीर्थ का पराभव देखकर पुनः संसार में आजाते है ॥११॥
फिर उन्हीं का मत दिखलाते है " इह संवुढे " इत्यादि।
शब्दार्थ-- ‘इह--उह' इस मनुष्य भवमें जो जीव 'संवुडे-संवृतः' मंयमादि में रत 'मुणी जाए--मुनिर्जातः' मुनि हो करके 'पच्छा--पश्चान्' पीछे 'अपावए-अपापकः' कर्म रहित 'होद-भवति' होजाता है। 'जहा--यथा' जैसा 'नीरयं--नीरजस्कम्' निर्मल 'वियर्डवु--विकटाम्बु' विस्तृतजल ‘भुजो--भूयः' फिर
છે. આ ત્રીજી રાશિ છે આત્મા પહેલા સ સારી હતું, ત્યાર બાદ મુક્ત થઈ ગયું અને ફરી સંસારી (બદ્ધ) થઈ ગયે આ પ્રકારની ત્રણ રાશિઓમાં તે ત્રિરાશિ માને છે તેમના धर्मशास्त्रमा मेषु यु छ - "ज्ञानिनो धर्म तीर्थ स्थ" त्याह
ધર્મતીર્થના કર્તા (સ્થાપક) જ્ઞાની પુરુષે પરમપદ મેક્ષ) પ્રાપ્ત કરે છે પરંતુ પિતાના તીર્થને પરાભવ થતે જોઈને તેઓ ફરી સંસારમાં આવી જાય છે ૧૦
सूत्र२ तमना भतनु विशेष वर्णन ४२ छ ‘इह संवुडे" त्याह
शहाथ- 'इह-इह' २॥ मनुष्यसभा २ प स वुढे-स वृत.' सयभ वगैरेभा प्रवृत्ति ४२ना। 'मुणीजाप मुनि न ' मुनि ने पच्छा पश्च त्' पा 'अपावर-- अपापक. ४ २डित 'हाइ-भवति' 25 तय थे 'जहा-यथा' पाशते 'निरय--रजस्कम' नि 'वियड वु-विकटाम्बु' विस्तृत पाel 'भुजो-भूप' या 'सरय -सरत