Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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संमया पोधिनी टीका प्र. श्रु अ. ' उ ३ जगदुत्पत्तविपये मतान्तरनिरूपणम् ३७ तयाऽनुपलम्भात् यदि दश्वरः कर्ता न स्यात् तदा कार्यत्वकर्तृत्वयोर्व्याप्तिः घटादौ परिदृश्यमाना कथमुपपत्तिपर्दवीं लभेंतेति न वाच्यम् । एतावता सकारणकत्वमात्रमैव गिरिसमुद्रादी व्यवस्थित भवति न तु ईश्वरकर्तृत्व सम्भवति । कार्यस्य केनचित्कीरणेन साहचर्य भवति, न तु अमुककारणेनैवेति नियमः, तदिहाऽपि कारणत्वं ने व्यभिचरति'
' ' , ' । . . . कार्यस्य घटादरनित्यत्वदर्शनात, कार्यत्वस्य॑ गिरिसमुद्राढावपि सत्वात् कथं "गिरिसमुद्रादेनित्यत्वमिति न वाच्यम् । कथंचिदनित्यत्वयाऽस्माभिरपि स्वीकारात् । निरन्वयविनाशस्यैवाऽनङ्गीकारात् । पर्यायरूपेण सर्वेऽनित्याः द्रव्ये सकता। उसके शरीर को अदृश्य मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा शरीर प्रमाण से उपलब्ध नहीं होती। 7 !! :
शंका-यदि ईश्वर का नहीं होगा तो कार्यत्व और कृर्तृत्व की व्याप्ति जो घटादि में दृष्टिगोचर होती है, किस प्रकार संगता हो सकेगी ?. .
। समाधान-ऐसा ना कहीए। कार्यत्व हेतु से पर्वत समुद्र आदि, में सामान्य रूप से सकारणता; सिद्ध होती है। अर्थात् पर्वत, आदि कार्य हैं तो उनका कोई कारण होना चाहिए, इतना ही सिद्ध होता है, उससे यह सिद्ध नहीं होता कि ईश्वरा उनका कर्ती होना चाहिए । कार्य की किसी कारण के साथ व्याप्ति होती है, मगर अमुक कारण के साथ ही व्याप्ति हो, ' ऐसा नियम नहीं है। यहां वहा सामान्य कारणता व्यभिचरित नहीं है। , 3. घट आदि कार्य अनित्य देखे जाते हैं, और , गिरि, समुद्र आदि में. भी- कार्यत्व है, अताअनित्यत्व भी होना चाहिए' - ऐसा कहना ठीक नहीं। हमने कथंचित् अनित्यताकार स्वीकार किया ही है। हां, उनका; निरन्वय विनाशपास हशित नथी,, २७ मे शरी२ अHI AR Syer यतुः नथी ANDR,
निकाय, तो आप अन भने तृपनी व्याति हिमा गायर थार थे, ते तसता ? ..!
છે, સમાધાન- શંકા અસ્થાને છે. કાર્યવ, હેતુ વડે પર્વત, સમુદ્ર આદિમાં સામાન્ય રૂપે સકારણુતા સિદ્ધ થયું છે એટલે કે પૂર્વ આદિ કર્યું છે, તે તેમનું કોઈ કારણ હોવું જોઈએ એટલું જ સિદ્ધ થાય છે. તેના દ્વારા એ સિદ્ધ થતું નથી કે ઈશ્વર જ તેના કર્તા હોવા જોઈએ કાર્યની કઈ પણ કારણની સાથે વ્યાણિ હેય છે પરંતુ અમુક કારણની સાથે જ વ્યાપિ હોવી જોઈએ એ નિયમ થી અહી તે સામાન્ય કારણુતા
घटाय, अनित्य सायमन २ ।। તેથી, અનિત્ય પણ હોવું જોઈએ એવું કથન ઉચિત નથી અમે કથ ચિહ્ન ( અમુક દષ્ટિએ અત્યતાને સ્વીકાર કર્યો છે. પરતું તેને નિય ( ગમૂળે) વિનાશ અમે સ્વીકારતા,
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