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( ३२ ) उस दृतने मृगध्वज राजाके पास आ विनय पूर्वक कहा कि, "हे महाराज! हमारे स्वामी आपको प्रसन्न करनेके हेतु आपके चरण-कमलोंमे विनंती करते हैं कि, 'किसी धूर्तके छलसे, आप राज्य छोडकर कहीं चले गये ऐसा समाचार पाकर मैं आपके नगरमें अमन चैन रख कर उसकी रक्षाके हेतु आया था, परंतु आपके सरदारोंको इस बातका ज्ञान न होनेसे वे सज धज कर शत्रुकी भांति मेरे साथ लडने लगे । परंतु मैने सब तरहसे शस्त्र प्रहार सहन करके आपके नगरकी रक्षा की। समय पडने पर जो स्वामीका चित्तसे कार्य नहीं करता वह क्या सेवक हो सकता है ? नहीं । प्रसंग पडनेपर पुत्र पिताके लिये, शिष्य गुरूके लिये सेवक स्वामीके लिये और स्त्री पतिके लिये अपने प्राणको तृण समान समझते हैं, यह लोकोक्ति ठीक है।"
चन्द्रशेखरके दूतके यह वचन सुनकर मृगध्वज राजाको इन वचनोंकी सत्यताके विषय में कुछ संशय तो हुआ, परन्तु 'कुछ अंशमे सत्य होंगे' ऐसा सरल स्वभावसे मान लिया । और मिलनेके लिये सन्मुख आये हुए चन्द्रशेखर राजाका उचित सत्कार किया । यह मृगध्वज राजाकी कितनी दक्षता, सरलता तथा गंभीरता है ?
तत्पश्चात् लक्ष्मीके समान कमलमालाके साथ विष्णुके समान सुशोभित मृगध्वज राजाने अप्रूव आनन्दोत्सव सहित नगरमें प्रवेश किया और जिस भांति शंकरने चन्द्रकलाको मस्तक पर