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त्रैलोक्यं सचराचरं विजयते यस्य प्रसादादिदं , योऽत्राऽमुत्र हितावहस्तनुभृतां सर्वार्थसिद्धिप्रदः । येनानर्थकदर्थना निजमहः सामर्थ्यतो यथिता , तस्मै कारुणिकाय धर्मविभवे भक्तिप्रणामोऽस्तु मे ॥१३०॥
(शार्दूलविक्रीडितम् ) अर्थ-जिसको कृपा से सचराचर रूप तोन जगत् (सदा) जयवन्त रहता है, जो प्राणियों के लिए इस लोक और परलोक की समृद्धि को लाने वाला है और जो धर्म अपने प्रभाव से अनेक अनर्थों की परम्पराओं को निष्फल बनाने वाला है, महाकरुणामय उस धर्मविभव को भक्तिपूर्वक मेरा प्रणाम हो ।। १३० ॥
विवेचन धर्म का पुण्य प्रभाव
धर्म के प्रभाव से तीन लोक में रहे हुए सभी प्राणी सुख प्राप्त करते हैं। धर्म ही इस लोक और परलोक में सुख देने वाला है, यावत् मोक्ष-सुख प्रदान करने का सामर्थ्य धर्म में रहा हुआ है।
धर्म से धन मिलता है, धर्म से काम मिलता है, धर्म में दुनिया की समृद्धि देने की ताकत रही हुई है। परन्तु मुमुक्षु आत्मा का कर्तव्य है कि वह धर्म के फलस्वरूप सांसारिक भौतिक-सुखों की झंखना न करे। धर्म के फलस्वरूप इस लोक के सुख की इच्छा करने से वह धर्मानुष्ठान भी विषानुष्ठान बन जाता है। धर्म के प्रभाव से पारलौकिक सुखों की झंखना करने से वह धर्मानुष्ठान-गरानुष्ठान बन जाता है, जो धीरे-धीरे प्रात्मा के गुणों का घात करता है ।
शान्त सुधारस विवेचन-१४