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अथवा किसी के अत्यधिक प्रादर-सत्कार व मान-सम्मान को देखकर सोचेंगे—'मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूँ "पक्का बेईमान है लोगों को गफलत में डाल रहा है...।' इत्यादिइत्यादि।
हे आत्मन् ! जरा विचार कर। हर वस्तु के अपने दो पहलू होते हैं। तू उसके बुरे पक्ष को ही क्यों देखता है ? तू उसके अच्छे पक्ष को देखने का प्रयत्न क्यों नहीं करता है ?
एक फल आधा खराब है। एक व्यक्ति कहता है, अरे ! यह कोई फल है ? आधा तो बेकार है। दूसरा कहता है अहो! इस फल का प्राधा भाग तो अच्छा है, अत: इसका उपयोग क्यों न करें ? ___अतः हे आत्मन् ! तू गुणग्राही बनकर वस्तु के सुन्दर पहलू को ग्रहण करना सीख ।
इस प्रकार किसी के सुकृत को देखकर तू उसकी अनुमोदना करेगा तो उसके सुकृत का लाभ तुझे भी मिल सकेगा।
येषां मन इह विगतविकारं , ये विदधति भुवि जगदुपकारम् । तेषां वयमुचिताचरितानां , नाम जपामो वारंवारम् ॥ विनय० १६६ ॥
अर्थ-जिनका मन यहाँ विकाररहित है, तथा जो सर्वत्र उपकार कर रहे हैं, ऐसे उचित आचरण करने वाले सत्पुरुषों का नामस्मरण हम बारम्बार करते हैं ॥ १६६ ।।
शान्त सुधारस विवेचन-१७५