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करुणावन्त प्रात्मा पुकार उठती है-हे भव्यजनो ! हे सज्जनो! भयंकर दुःख की पीड़ा में से मुक्त बनने के लिए आप जिनेश्वरदेव की सेवा करो।
इस संसार में प्रात्मा अपने राग-द्वेष के अध्यवसायों से ही कर्मबन्ध करती है और उसके फलस्वरूप नये-नये दु:खों को प्राप्त करती है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि संसार के समस्त दुःखों की जड़ राग और द्वेष ही है। यदि मात्मा में राग-द्वेष न हो तो तज्जन्य कर्म भी नहीं हो सकते हैं और कर्म का बन्ध न हो तो दुःख भी नहीं आ सकते हैं।
राग-द्वेष के बन्धन से मुक्त बनने के लिए जो वीतराग बन चुके हैं, उनकी सेवा, भक्ति और उनकी प्राज्ञा का पालन अनिवार्य है। धन का अर्थी धनी की आज्ञा का अनुसरण करता है। विद्या का प्रर्थी विद्यावन्त गुरु की आज्ञा का अनुसरण करता है। प्रारोग्य का अर्थी वैद्य की प्राज्ञा का अनुसरण करता है, इसी प्रकार जो राग-द्वेष से मुक्त बनना चाहता है, उसे वीतराग की सेवा अवश्य करनी चाहिये ।
हे भव्यजनो! हे सज्जनो! भव-रोग से मुक्त बनने के लिए वीतराग-सेवा को छोड़कर दूसरा कोई श्रेष्ठ उपाय नहीं है ।
__वोतराग-स्तोत्र में कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी ने कहा है
'प्राज्ञाराद्धा विराद्धा च शिवाय च भवाय च ।' परमात्मा की आज्ञा का पालन कल्याण (मोक्ष) के लिए है और उनकी प्राज्ञा की विराधना संसार के लिए है।
शान्त सुधारस विवेचन-२०१