________________
द्वेष को दूर करने के लिए महापुरुषों ने मैत्री आदि चार भावनाएँ बतलाई हैं ।
इस संसार में ऐसे अनेक प्रारणी हैं, जिनको हितकर बात भी अत्यन्त कटु लगती है । वे अपने आत्म- हित के प्रति पूर्णतया बेपरवाह होते हैं । उन्हें तो इस जीवन के क्षणिक सुखों में ही आनन्द आता है और येन केन प्रकारेण उन सुखों को पाने के लिए वे दौड़धूप करते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें भयंकर पापकर्म करने पड़ें। भयंकर पापप्रवृत्ति को करते हुए भी उनके हृदय में लेश भी पीड़ा नहीं होती है । साग और तरकारी की तरह वे बड़े-बड़े पशुओंों को और मनुष्यों को भी चीर डालते हैं । किसी की हत्या करने में उन्हें तनिक भी हिचकिचाहट नहीं होती है । उन्हें पाप से भय नहीं होता है, बल्कि वे उसमें पूर्णतया श्रासक्त होते हैं। किसी जीव को मरते हुए तड़फते हुए देखने में ही उन्हें आनन्द आता है ।
ऐसी क्रूरवृत्ति वाले लोगों के प्रति हमारे मन में (अनादि के द्वेष भाव के संस्कारों के कारण ) घृरणा का भाव आना स्वाभाविक है, परन्तु वह घृरणा का भाव हमारी आत्मा के लिए हितकर नहीं है, अतः ऐसी परिस्थिति में हमें उदासीन व तटस्थ रहना है और इस माध्यस्थ्य - प्रौदासीन्य भावना से प्रात्मा को भावित करना है ।
यह उदासीनता परम आनन्ददायी है और आत्मा के शाश्वत सुख के साथ हमारा सम्बन्ध कराने वाली है । इष्टफल को देने में यह कल्पवृक्ष के समान है ।
यह प्रौदासीन्य वृत्ति जिनागमों का सार है । उपशम भाव
शान्त सुधारस विवेचन- २२६