Book Title: Shant Sudharas Part 02
Author(s): Ratnasenvijay
Publisher: Swadhyay Sangh

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Page 245
________________ है। धन, धान्य, पत्नी, पुत्र, परिवार, मकान, दूकान, जायदाद, सम्पत्ति व यह देह अपने नहीं हैं। परन्तु हमने इन सबको अपना मान लिया है। विनाशी देह में ही हमने प्रात्मबुद्धि कर ली है। 'मैं आत्मा हूँ' और 'ज्ञान-दर्शन-चरित्र मेरी प्रात्म-सम्पत्ति हैं' इस बात को हम सर्वथा भूल गए हैं। सतत बहिर्भाव में ही जी रहे हैं। इसके परिणाम-स्वरूप हम सतत पौद्गलिक चीजों को चिन्ता से ग्रस्त बने हैं। हमें धनार्जन की चिन्ता है"अजित धन के रक्षण की चिन्ता है""पुत्र-परिवार की चिन्ता है""उन्हें कोई तकलीफ न आ जाय, इसके लिए हम पूर्ण जागरूक हैं "परन्तु दूसरी ओर हमारी आत्मसम्पत्ति सतत लूटी जा रही हैं और हम दरिद्र-कंगाल सी स्थिति में आ चुके हैं, इस बात को हमें लेश भी परवाह नहीं है। हे प्रात्मन् ! तू इन परभावों की चिन्ता छोड़ दे, क्योंकि इन चिन्ताओं से तुझे कुछ भी फायदा होने वाला नहीं है, तू अपने अविनाशी आत्म-स्वरूप का चिन्तन कर। तू अजर है, अमर है."विनाशी है। प्राग तुझे जला नहीं सकती है, पवन तुझे उड़ा नहीं सकता है शस्त्र तुझे छेद नहीं सकते हैं । तू आनन्दमय है,""ज्ञानमय है, "सुखमय है। 'तू निरंजन-निराकार ज्योतिस्वरूप है।' इस प्रकार तू अपने स्वरूप का चिन्तन कर, प्रात्मानुभूति के लिए प्रयत्नशील बन और अन्य सब झंझट छोड़ दे। अन्य व्यक्ति क्या-क्या प्रवृत्ति करता है ? उस प्रवृत्ति के क्या-क्या परिणाम आएंगे? इत्यादि विचार करने की तुझे आवश्यकता नहीं है। तुझे तो उसके प्रति उदासीन/मध्यस्थ हो जाना है । शान्त सुधारस विवेचन २३१

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