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जब आत्मा संसार के समस्त बाह्य भावों के प्रति उदासीन बन जाती है, तब उसकी दृष्टि शत्रु-मित्र में, सुख-दुःख में, अनुकूलता-प्रतिकूलता में, कंचन और काच में समान हो जाती है अर्थात् उसे न तो अनुकूलता में राग होता है और न ही प्रतिकूलता में द्वेष ।
इस औदासीन्य भावना की प्रकृष्ट दशा ही आत्मा की वीतराग अवस्था है। वीतराग बन जाने के बाद आत्मा पूर्ण उदासीन बन जाती है। इस प्रकार औदासीन्य भावना प्रात्मा को वीतराग दशा की ओर आगे बढ़ने का ही एक कदम है ।
वीतराग बनने के तुरन्त बाद प्रात्मा ज्ञानावरणीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय कर निर्मल केवलज्ञान को प्राप्त करती है, इस प्रकार यह भावना वीतरागदशा और केवलज्ञान की प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है।
अपने दैनिक जीवन-व्यवहार में यदि हम माध्यस्थ्य भावना को आत्मसात् कर लें तो हमारे जीवन की अनेकविध समस्याओं का समाधान हो सकता है। कोई व्यक्ति हमारी बात नहीं मानता है, तब हमें गुस्सा आ जाता है। किसी व्यक्ति को हम उसके हित की बात समझाते हैं, फिर भी वह हमारी उपेक्षा कर देता है, तब हमारे दिल में उसके प्रति नाराजगी पैदा हो जाती है ।
किसी पर हमने उपकार किया हो, फिर भी वह हमारा नुकसान करने के लिए तैयार होता हो तो उस समय हमें भयंकर गुस्सा आ जाता है।
परन्तु उपर्युक्त सभी परिस्थितियों में अपने मन को बराबर संतुलित बनाए रखने के लिए यह माध्यस्थ्य भावना हमें एक सुन्दर प्रेरणा देती है। यदि हम इस भावना को आत्मसात् कर लें तो हम अपनी प्रात्मा को मुक्ति के साथ जोड़ सकते हैं ।
शान्त सुधारस विवेचन-२४१