Book Title: Shant Sudharas Part 02
Author(s): Ratnasenvijay
Publisher: Swadhyay Sangh

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Page 258
________________ अर्थ-यह प्रयत्न श्रीमद् विजयप्रभ सूरीश्वरजी म. की कृपा से गन्धपुर (गांधार) नगर में संवत् १७२३ वर्ष में सफल हुमा ।। २३४ ॥ यथा विधुः षोडशभिः कलाभिः , संपूर्णतामेत्य जगत् पुनीते । ग्रन्थस्तथा षोडशभिः प्रकाशै - रयं समग्रः शिवमातनोतु ॥ २३५ ॥ (उपजाति) अर्थ-जिस प्रकार चन्द्रमा सोलह कलाओं से सम्पूर्णता प्राप्त कर जगत् को पावन करता है, उसी प्रकार यह ग्रन्थ भी सम्पूर्ण सोलह प्रकाशों के द्वारा शिवसुख का विस्तार करे ।। २३५ ।। यावज्जगत्येष सहस्रभानुः , पीयूषभानुश्च सदोदयेते । तावत्सतामेतदपि प्रमोदं, ज्योतिः स्फुरद्वाङ्मयमातनोतु ॥ २३६ ॥ (उपजाति) अर्थ-जब तक जगत् में सूर्य और चन्द्र उदित रहें तब तक यह प्रकाशवन्त शास्त्र रूप ज्योति भी सत्पुरुषों को प्रमोद (प्रानन्द) देती रहे। ___ इति श्रीमन्महोपाध्याय श्रीकीतिविजयगरिणशिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगरिण - विरचिते शान्त-सुधारसग्रन्थे षोडशः प्रकाशः समाप्तिमगमत् । शान्त सुधारस विवेचन-२४४

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