Book Title: Shant Sudharas Part 02
Author(s): Ratnasenvijay
Publisher: Swadhyay Sangh

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Page 256
________________ प्रथ अथ प्रशस्तिः एवं सद्भावनाभिः सुरभितहृदयाः संशयातीतगीतोन्नीतस्फीतात्मतत्त्वास्त्वरितमपसरन्मोहनिद्राममत्वाः गत्वा सत्त्वाममत्वातिशयमनुपमां चक्रिशक्राधिकानां, सौख्यानां मंक्षु लक्ष्मीं परिचितविनयाः स्फारकीति श्रयन्ते I ।। २३० ।। (खग्धरा) - अर्थ – इस प्रकार सद्भावनाओं से सुवासित हृदय वाले प्रारणी संशयरहित हृदय से प्रशस्त श्रात्मतत्त्व की उन्नति कर शीघ्र ही मोहनिद्रा और ममत्व को दूर कर चक्रवर्ती और इन्द्र से भी अधिक अनुपम सुख-समृद्धि को सहज प्राप्त करते हैं और प्रति नम्रता को धारण करते हुए भी वे विस्तृत कीर्ति प्राप्त करते हैं ।। २३० ।। शान्त सुधारस विवेचन- २४२ दुर्ध्यानप्रेतपीडा प्रभवति न मनाक् काचिदद्वन्द्व सौख्यस्फातिः प्रीणाति चित्तं प्रसरति परितः सौख्य सौहित्यसिन्धुः । क्षीयन्ते रागरोषप्रभृतिरिपुभटाः सिद्धिसाम्राज्यलक्ष्मीः स्याद्वश्या यन्महिम्ना विनयशुचिधियो भावनास्ताः श्रयध्वम् ।। २३१ ॥ ( त्रग्धरा)

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