Book Title: Shant Sudharas Part 02
Author(s): Ratnasenvijay
Publisher: Swadhyay Sangh

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Page 257
________________ सूता द्वौ। अर्थ-जिसके प्रभाव से दुर्ध्यान रूप प्रेत की पीड़ा उत्पन्न नहीं होती है, अपूर्व सुख की प्राप्ति से चित्त प्रसन्न बनता है, चारों ओर सुख की पुष्टि रूप सागर फैल जाता है, राग-द्वेष रूप शत्रु. वर्ग नष्ट हो जाते हैं और मुक्ति रूप साम्राज्य की लक्ष्मी वशीभूत बनती है, इस प्रकार की विनय से पवित्र बनी बुद्धि को धारण कर उपर्युक्त भावनाओं को भजो ! उनका सेवन करो ।। २३१ ।। श्रीहीरविजय - सूरीश्वर - शिष्यौ , सोदरावभूतां श्रीसोमविजयवाचकवाचकवरकीतिविजयाख्यौ ॥ २३२ ॥ (पथ्या) अर्थ- श्री सोमविजय वाचक (उपाध्याय) और श्री कीर्तिविजय वाचक (उपाध्याय) दोनों श्रीमद् हीरविजय सूरीश्वरजी म. के शिष्य होने से दोनों गुरुभ्राता हुए ।। २३२ ।। तत्र च कीतिविजयवाचकशिष्योपाध्यायविनयविजयेन । शान्तसुधारसनामा संदृष्टो भावनाप्रबन्धोऽयम् ॥ २३३ ॥ (गीति) अर्थ-उनमें (उपाध्याय) श्रीमद् कीति विजयजी म. के शिष्य उपाध्याय श्री विनय विजयजी म ने भावनाओं के सम्बन्ध से प्रकृष्ट बोधदायी शान्त सुधारस नाम का ग्रन्थ रचा है ।। २३३ ।। शिखि-नयन-सिन्धु-शशिमित वर्षे , हर्षेण गन्धपुरनगरे । श्रीविजयप्रभसूरिप्रसादतो , यत्न एष सफलोऽभूत् ॥ २३४ ॥ (गीति) शान्त सुधारस विवेचन-२४३

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