________________
विवेचन प्रात्मा ही तीर्थ है
यह प्रात्मा अनुपम तीर्थ है। तीर्थ अर्थात् जो आत्मा को भवसागर से पार लगाता है। तीर्थ के दो भेद हैं-(१) स्थावर तीर्थ और (२) जंगम तीर्थ। शत्रु जय, गिरनार आदि स्थावर तीर्थ हैं, जा अपनी आत्मा को भवसागर पार उतरने के लिए श्रेष्ठ मालम्बन स्वरूप हैं। साधु-साध्वी आदि जंगम तीर्थस्वरूप हैं, जिनके पालम्बन से हम आसानी से भवसागर पार कर सकते हैं।
ग्रन्थकार महर्षि अपनी आत्मा को अनुपम तीर्थ स्वरूप बतला रहे हैं। अपनी आत्मा का शुद्ध स्वरूप परमात्म-तुल्य है, अत व्यक्ति जब अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप के चिन्तन-ध्यान में मग्न बनता है, तब उसके लिए विशुद्धात्मा तीर्थस्वरूप बन जाती है। यह तीर्थ अनुपम है तथा अपनी प्रात्मा में ही स्थित है ।
आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का ध्यान एक सर्वोत्तम ध्यान है। विशुद्ध-प्रात्मा के ध्यान से हमें परमानन्द की अनुभूति होती है। प्रात्मा ही सुख का अक्षय भण्डार है, अतः जब प्रात्मा अपने स्वरूप में लीन बनती है, तब वह अलौकिक परम आनन्द का अनुभव करती है।
आत्मानुभूति का जो प्रानन्द है, वह आनन्द हमें सांसारिक पदार्थों से कहीं कभी प्राप्त नहीं हो सकता है ।
आत्मा स्वय ही सच्चिदानन्द स्वरूप है। आनन्द अपने पास-अत्यन्त पास ही है, परन्तु अनभिज्ञता के कारण हम उस प्रानन्द को अन्यत्र शोधते हैं।
हे आत्मन् ! तू आत्मस्वरूप के चिन्तन में सतत जागरूक
शान्त सुधारस विवेचन-२३९