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मल्लिनाथ ने पूर्वभव में तप के आचरण में माया की थी, इसके परिणामस्वरूप उन्हें तीर्थंकर के भव में भी स्त्री पर्याय प्राप्त हुई।
मायावी व्यक्ति धर्म का अधिकारी नहीं है। जिस प्रकार धागे में गाँठ न हो तो ही उसे सुई में पिरोया जा सकता है, उसी प्रकार सरल व्यक्ति के हृदय में ही धर्म का अवतरण हो सकता है । प्रतः हे प्रात्मन् ! तू माया-प्रपंच का भी सर्वथा त्याग कर दे।
हे आत्मन् ! तू पुद्गल की परवशता का भी त्याग कर दे। पुद्गल तो क्षणिक है, नाशवन्त है, उसके साथ अपना नाता जोड़ना उचित नहीं है। धन, मकान, दुकान, जायदाद आदि सब पुद्गल को ही तो पर्यायें हैं। पुद्गल की पर्यायें प्रतिक्षण बदलती रहती हैं, अतः तू उनमें राग भाव का त्याग कर दे, तेरा जीवन अल्पकालीन है. कुछ ही समय के बाद तुझे यहाँ से चल देना है, अतः पौद्गलिक भाव में तू क्यों नाच रहा है ? उनकी क्षणिकता का विचार कर तू उनका त्याग कर और प्रात्मा के साथ अपना प्रेम जोड़ दे। अनुपमतीर्थमिदं स्मर चेतन -
मन्तः स्थितमभिरामं रे। चिरं जीव विशदपरिणामं ,
लभसे सुखमविरामं रे ॥ अनुभव० २२८ ॥
अर्थ-अन्दर रही हुई प्रात्मा हो सुन्दर व अनुपम तीर्थ है, उसे तू याद कर और चिरकाल पर्यन्त निर्मल परिणामों को धारण कर जिससे तुझे अक्षय सुख की प्राप्ति होगी ।। २२८ ।।
शान्त सुधारस विवेचन-२३८