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है ? इसी प्रकार शास्त्र तो सन्मार्ग के प्रकाशक हैं, उनके श्रालम्बन से हम भवसागर पार कर सकते हैं, परन्तु उन शास्त्रों के शब्दों को पकड़कर जो उनके रहस्यार्थ / ऐदपर्यार्थ को जानने का प्रयत्न नहीं करते हैं और शास्त्र - प्रवचन- विरुद्ध ही देशना देते हैं और शास्त्रविरुद्ध ही प्रवृत्ति करते हैं, तो आगे हम क्या कर सकते हैं ?
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पश्यसि कि न मनःपरिणामं,
निजनिजगत्यनुसारं
यथा
भवितव्यं, दुर्वारं
तद्भवता
रे ।। अनुभव० २२६ ॥
अर्थ - अपनी अपनी गति के अनुसार जीवों के ( शुभाशुभ ) परिणाम होते हैं, अतः हे श्रात्मन् ! तू क्यों नहीं समझता है ? जिस आत्मा की जो गति होने वाली है, उसे तू कैसे रोक सकेगा ? उसे तू नहीं मिटा सकता है ।। २२६ ।।
विवेचन
किसी की भावी को मिथ्या नहीं कर सकते
इस संसार में सभी जीवों के अन्तिम परिणाम उनकी आगामी गति के अनुसार ही होते हैं । 'यथा गति तथा मति ।' आत्मा को जहाँ पैदा होना है, उस गति के अनुसार ही उसके अन्तिम परिणाम होते हैं ।
येन जनेन
यदि किसी आत्मा की दुर्गति ही होने वाली है यदि कोई आत्मा नरकगामी ही है तो उसके अन्तिम परिणाम क्रूर ही शान्त सुधारस विवेचन- २३५