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यह तो प्रवचन का सार है । जो आत्मा प्रौदासीन्यभाव को आत्मसात् कर लेती है, उस आत्मा ने जिनागम के सारभूत तत्त्व को ग्रहरण कर लिया है। वह श्रात्मा क्रमशः अपने इष्ट फल को पाने में तत्पर बनती जाती है ।
परिहर
रपचिन्तापरिवारं, निजमविकारं रे ।
चिन्तय
वदति कोऽपि चिनोति करीरं, सहकारं
चिनुतेऽन्यः
रे || अनुभव ० २२३ ॥
अर्थ - पर- पुद्गल की चिन्ता का तू त्याग कर दे और आत्मा के अविकारी आत्मस्वरूप का तू चिन्तन कर । कोई मुख से बड़ी-बड़ी बातें ही करते हैं, किन्तु वे केरड़ा ही पाते हैं, जबकि परिश्रम करने वाले ग्राम्र की प्राप्ति करते हैं ।। २२३ ।।
विवेचन
आत्मा का चिन्तन करो
हे आत्मन् ! तू अन्य की चिन्ता का त्याग कर दे और अपनी आत्मा के अविकारी स्वरूप में लीन बन जा ।
एक ही पंक्ति में ग्रन्थकार महर्षि ने हमें प्रानन्द की चाबी दे दी है ।
इस संसार में आत्मा दुःखी बनती है पर भाव में रमणता
से । जो अपना नहीं है, उसे अपना मानकर, उसकी प्राप्ति,
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उसके संरक्षरण आदि की चिन्ता में व्यग्र बनना परभाव - रमरणता
शान्त सुधारस विवेचन- २३०