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षोडशभावनाष्टकम्
(प्रभाती राग) अनुभव विनय ! सदा सुखमनुभव ,
औदासीन्यमुदारं रे । कुशलसमागममागमसारं
कामित • फलमन्दारं रे ॥ अनुभव० २२२ ॥
अर्थ-हे विनय ! तू सदैव उदासीनता रूप उदार सुख का अनुभव कर। क्योंकि यह आगम-सिद्धान्त के सार रूप मोक्षपद की प्राप्ति कराने वाला है तथा इष्ट फल को देने में कल्पवृक्ष के समान है ।। २२२ ॥
विवेचन उदासीन भाव कल्पवृक्ष है
पूज्यपाद ग्रन्थकार महर्षि आत्मसम्बोधन करते हुए फरमाते हैं कि हे विनय ! हे प्रात्मन् ! तू उदासीनता के नित्य सुख का अनुभव कर।
क्षणिक पदार्थों के राग भाव को दूर करने के लिए महापुरुषों ने अनित्य आदि भावनाओं का निर्देश किया है, जबकि जीवत्व के
शान्त सुधारस विवेचन-२२८