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अर्थ-अतः सभी सन्त पुरुष उदासीनता रूपी अमृत का बारम्बार पान करें और आनन्द की उछलती तरंगों के द्वारा प्राणीमुक्ति के सुख को प्राप्त करें हैं ।। २२१ ।।
विवेचन उदासीन भाव अमृत तुल्य है
यह उदासीन भाव सारभूत अमृत तुल्य है। संत पुरुष इस अमृत का बारंबार पान करते हैं। जिसे यह संसार बन्धनरूप लगा हो और जो आत्मा ससार के बन्धनों में से मुक्त बनना चाहती है, उसी प्रात्मा को यह भावना अमृत तुल्य लगती है। क्योंकि यह औदासीन्य भावना आत्मा को मध्यस्थ व तटस्थ बनाती है।
हमारी आत्मा का झुकाव कभी राग की ओर होता है, तो कभी द्वष की ओर। इस औदासीन्य भावना के अभ्यास से हमारी आत्मा मध्यस्थ-तटस्थ बनने लगती है, फिर हमारी प्रात्मा का झुकाव न राग की ओर होगा और न ही द्वेष की ओर। ऐसी स्थिति आने पर प्रात्मा प्रशम रस के महासागर में निमग्न हो जाएगी। प्रशम रस का सुख अनुपम सुख है, उस सुख का एक बार भी स्वाद पा जाय तो फिर सांसारिक सुख की इच्छा ही समाप्त हो जाती है। जिस सुख का अनुभव देवदेवेन्द्र और चक्रवर्ती के लिए भी दुर्लभ है, उस सुख का अनुभव प्रशमरस में निमग्न प्रात्मा कर लेती है।
मोक्ष का सुख परोक्ष और दुर्लभ है, किन्तु प्रशम का सुख तो सुलभ है न ! हे भव्यात्मन् ! तू इस सुख का आस्वादन कर ।
शान्त सुधारस विवेचन-२२६