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धर्म कोई बलात्कार से देने की वस्तु नहीं है। धर्म कोई जैसे-तैसे वितरण करने की वस्तु नहीं है। धर्म तो घी के समान है। घी सबको नहीं पिलाया जाता है, जिसमें घी पचाने की ताकत हो, उसी के लिए घी लाभकारी है। जो व्यक्ति छाछ
और दूध भी नहीं पचा सकता है, उसको घी पिला देने से तो नुकसान की ही सम्भावना रहती है। ..
प्रतः धर्म भी योग्य और पात्र जीवों को ही देने का है। अपात्र जीव, धर्म को प्राप्त कर भी अपना अहित ही करता है।
जिस प्रकार प्राग जिलाती भी है और जलाती भी है। जो आग का सदुपयोग करना जानता है, उसके लिए प्राग जीवन का अंग है और जिसे प्राग का उपयोग करना नहीं पाता है, उस व्यक्ति को आग जलाकर समाप्त कर देती है।
इसी प्रकार जो धर्म को बराबर समझता है, उसके लिए धर्म तारक है और जो धर्म को बराबर न समझकर, उसका स्वेच्छानुसार उपयोग करता है, उसके लिए धर्म घातक भी सिद्ध हो जाता है।
अतः मात्र 'धर्म-प्रचार' के एकांगी विचार को नहीं पकड़ना चाहिये, बल्कि पात्रता देखकर ही धर्म का दान करना चाहिये।
तस्मादौदासीन्यपीयूषसारं ,
वारं वारं हन्त सन्तो लिहन्तु । प्रानन्दानामुत्तरङ्गत्तरङ्गर्जीवद्भिर्यद् भुज्यते मुक्तिसौख्यम् ॥ २२१ ॥
(शालिनी)
सुधारस-१५
शान्त सुधारस विवेचन-२२५