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स्व-पीड़ा-निवारण का चिन्तन प्रार्तध्यान है। पर-पीड़ा-निवारण का चिन्तन धर्मध्यान है।
इस करुणा भावना के द्वारा आत्मा, जगत् में रहे हुए अन्य समस्त जीवों के दुःख-निवारण की भावना करती है, यह एक प्रकार को शुभ-भावना है। स्व-सुख के चिन्तन रूप प्रार्तध्यान से आत्मा अशुभ कर्म का बन्ध करती है, जबकि जगत् के सर्व जीवों के सुख-चिन्तन से प्रात्मा शुभध्यान के द्वारा शुभ कर्मों का उपार्जन करती है।
इस शुभध्यान के फलस्वरूप भविष्य में प्रात्मा निर्विकार मोक्षसुख प्राप्त करने के लिए सुयोग्य बनती है और अन्त में वह उस शाश्वत सुख को प्राप्त कर अजर-अमर बन जाती है । उसके दुःख सदा के लिए दूर हो जाते हैं, वह शाश्वत सुख की भोक्ता बन जाती है। मोक्ष-प्राप्ति के बाद आत्मा को न जन्म की पीड़ा है और न मृत्यु को। न भूख है, न प्यास है। आत्मा परमानन्द निज स्वरूप की मस्ती का अनुभव करती है। मोक्ष के सुख का वर्णन असम्भव ही है।
संसार के अनुत्तरदेव आदि के सभी सुखों को पिण्डरूप बनाया जाय तो भी मुक्तात्मा के एक आत्म-प्रदेश के सुख का अनन्तवाँ भाग ही होता है, अर्थात् मुक्तात्मा अपने एक प्रात्मप्रदेश से जिस सुख का अनुभव करती है, उस सुख के अनन्तवें भाग जितना सुख भी इस संसार में नहीं है ।
शान्त सुधारस विवेचन-१६६