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और लेश मात्र भी धर्म को मन में स्थान नहीं देते हैं, उनके दुर्गति आदि भाव-रोगों को कैसे दूर करें? अतः उन जीवों के प्रति करुणा रखना, यही एक उपाय है ।। २०७ ।।
विवेचन करुणापात्र कौन ?
महान् पुण्योदय से सद्गुरु का योग मिलता है। जिन आत्माओं को सद्गुरु का योग सुलभ हो, किन्तु मोह के अधीन बनकर जो सद्गुरु की उपेक्षा करके धर्मोपदेश नहीं सुनते हैं, वे जीव अत्यन्त ही दया के पात्र हैं।
जैनदर्शन में करुणा के दो भेद बतलाए हैं-द्रव्यकरुणा और भावकरुणा।
रोग, भूख तथा अन्य शारीरिक-मानसिक यातनामों से जो ग्रस्त हैं, उनके बाह्य दु:ख के निवारण की चिन्ता करना और यथाशक्य उनके दुःखों को दूर करना द्रव्यकरुणा है तथा जो धन-धान्य तथा बाह्य वैभव से समृद्ध होते हुए भी धर्म से विमुख हैं, उन जीवों पर भावकरुणा करनी चाहिये।
धर्म से रहित चक्रवर्ती भी दया/करुणा का पात्र है, क्योंकि धर्म के सिवाय परलोक में सच्चा साथी और कौन है ? धर्म ही आत्मा का सच्चा रक्षक और हितचिन्तक है। अपने हितचिन्तक धर्म को छोड़कर जो प्रात्माएँ मोज-शौक और ऐश-आराम में निमग्न हैं, उन जीवों पर भावकरुणा करनी चाहिये।
धर्म औषधि तुल्य है। रोगी यदि औषधि लेने के लिए
शान्त सुधारस विवेचन-१९७