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उसके पास है, किन्तु उसके लोभ की सीमा नहीं है । भयंकर बाढ़ में बह रहे लकड़ों को वह खींच रहा है। इस प्रकार धन में प्रासक्त बना वह न दान देता है और न ही उस धन का उपभोग करता है। यह कैसी लोभान्धता है !
जरा सूर्यकान्ता महारानी को देखें। अहो ! कुछ समय पूर्व उसके हृदय में अपने पति के प्रति कितना अधिक राग था ! किन्तु प्राज वही महारानी अपने स्वामी को जहर का प्याला पिला रही है और गला दबोचकर पति की हत्या कर रही है।
बड़ा ही विचित्र है यह संसार। कोई रागान्ध है तो कोई क्रोधान्ध है। कोई दीनता कर रहा है तो कोई अभिमान कर रहा है। कोई माया में लीन है तो कोई अत्यन्त ही सरल है। कोई अत्यन्त ही सन्तोषी है तो किसी के लोभ की कोई सीमा ही नहीं है।
इस विचित्रता से परिपूर्ण संसार में सभी जीव अपने-अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार नाना प्रकार के वेष परिधान कर रहे हैं।
इस प्रकार संसार की विचित्रता के दर्शन कर हे भव्यात्मन् ! तू राग और द्वेष का त्याग कर दे ।
सभी जीव अपने-अपने कर्मों के आधीन हैं और कर्म के अनुसार ही प्रवृत्ति-निवृत्ति कर रहे हैं, अतः किसकी स्तुति करें ? और किसकी निन्दा करें? अर्थात् अन्य जीवों की वृत्ति-प्रवृत्ति को देखने के बजाय प्रात्म-निरीक्षण करना ही लाभकारी है। क्योंकि प्रात्म-निरीक्षण कर सत् में प्रवृत्ति और असत् से निवृत्ति लेना ही श्रेयस्कर है।
शान्त सुधारस विवेचन-२२१