Book Title: Shant Sudharas Part 02
Author(s): Ratnasenvijay
Publisher: Swadhyay Sangh

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Page 236
________________ मिथ्या शंसन् वीरतीर्थेश्वरेण , रोर्बु शेके न स्वशिष्यो जमालिः । अन्यः को वा रोत्स्यते केन पापात् , तस्मादादासान्यमवात्मनानम् ॥ २१ ॥ (शालिनी) अर्थ-स्वयं तीर्थंकर परमात्मा महावीर स्वामी भी अपने शिष्य जमाली को विरुद्ध प्ररूपणा करते हुए रोक नहीं सके, तो फिर कौन किसको पाप से रोक सकता है ? अतः उदासीनता ही प्रात्महितकर है ।। २१६ ॥ विवेचन उदासीनता ही आत्महितकर है ____ हे भव्यात्मन् ! तेरी यह इच्छा है कि 'मैं सबको सुधार हूँ।' और इसी भावना से प्रेरित होकर तू उपदेश देता है और अन्य को बारबार प्रेरणा करता रहता है। परन्तु यह जरूरी नहीं है कि सभी तुम्हारी प्रेरणाओं को स्वीकार कर लें सभी तुम्हारे उपदेश का अनुसरण कर लें। क्योंकि सभी जीव अपनेअपने कर्म के आधीन हैं, सभी जीवों की भवितव्यता भिन्न है। सभी जीवों की योग्यता में अन्तर है, अतः कोई जीव जल्दी प्रतिबोध पा जाता है और कोई भारी कर्मी जीव प्रतिबोध देने पर भी प्रतिबोध नहीं पाता है। सांसारिक जीवों को इस विचित्र स्थिति को देखकर, यदि कोई प्रात्मा बोध न पाए तो भी तू खेद मत कर, बल्कि औदासीन्य भावना से अपनी प्रात्मा को भावित कर दे। शान्त सुधारस विवेचन-२२२

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