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ये वीतराग अरिहन्त परमात्मा निष्कारण अप्रतिम करुणावन्त हैं। पूर्व के तीसरे भव में 'सवि जीव करूंशासनरसी' की उत्कृष्ट भावना के बल से उन्होंने तीर्थकर नामकर्म निकाचित किया है और इस कर्म के उदय से ही वे अपने अन्तिम भव में तीर्थकर पद प्राप्त कर 'तीर्थ' अर्थात् 'जिनशासन' की स्थापना करते हैं।
उनके हृदय में जगत् के सर्व जीवों के कल्याण की कामना उत्कृष्ट भाव से रही हुई है। इसी भावना के फलस्वरूप वे धर्म का उपदेश देते हैं। वे निष्कारण उपकारी हैं, उनके हृदय में प्रतिफल पाने की कोई वांछा नहीं है।
जिस प्रकार सूर्य का स्वभाव ही प्रकाश देने का है, वह प्रकाश देकर प्रतिफलस्वरूप कुछ भी नहीं मांगता है, इसी प्रकार 'परोपकार' यह तीर्थंकर परमात्मा का स्वभाव बना होता है। वे भव्य जीवों को सर्व प्रकार से और सर्वदा दु:खमुक्त बनने का सर्वश्रेष्ठ मोक्ष-मार्ग बतलाते हैं। मोक्षमार्ग का प्रदर्शन कर वे भव्य जीवों पर अद्वितीय असदृश उपकार करते हैं। ऐसे अनन्त करुणावन्त जिनेश्वरदेव की आज्ञा का तुम आराधन करो, यही भवरोग मुक्ति का सुन्दर उपाय है ।
क्षणमुपधाय मनःस्थिरतायां , पिबत
जिनागमसारम् । कापथघटनाविकृतविचारं त्यजत कृतान्तमसारं रे ॥ सुजना० २१० ॥ अर्थ-क्षण भर मन को स्थिर करके श्री जिनेश्वरदेव के
शान्त सुधारस विवेचन-२०२