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माध्यस्थ्य भावना
श्रान्ता यस्मिन् विश्रमं संश्रयन्ते ,
रुग्णाः प्रीति यत्समासाद्य सद्यः। लम्यं राग-द्वेषविद्वेषिरोधादौदासीन्यं सर्वदा तत् प्रियं नः ॥ २१७ ॥
(शालिनी)
अर्थ-जिस उदासीनता को प्राप्त कर श्रमित जन विश्राम प्राप्त करते हैं और रोगी जन प्रीति प्राप्त करते हैं, राग-द्वेष रूप शत्रु का रोध करने से उसे (उदासीनता को) प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा प्रौदासीन्य हमें सर्वदा प्रिय है ।। २१७ ।।
विवेचन उदासीन/मध्यस्थ बनो
मुमुक्षु आत्मा के हृदय में अपार करुणा होती है, उसके हृदय में सभी दुःखी आत्माओं के प्रति करुणा होती है । वह उन सब प्रात्माओं को मोक्ष-अनुरागो देखना चाहती है। परन्तु दुनिया में ऐसी भी आत्माएँ हैं जो अपने तीव्र पापोदय के कारण मोक्ष
शान्त सुधारस विवेचन-२१६