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ऐसे क्रूर, हिंसक, व्यभिचारी, पापी, शराबी, शिकारी जीवों को देखकर हमारे हृदय में उनके प्रति द्वष अथवा दुर्भावना पैदा न हो जाय, इसके लिए तीर्थंकर भगवन्तों ने यह 'माध्यस्थ्य भावना' बतलाई है, अर्थात् उन जीवों के प्रति भी हमारे हृदय में द्वषभाव नहीं आना चाहिये; बल्कि उनके प्रति हमें मध्यस्थ/ उदासीन रहना चाहिये।
राग और द्वेष से मुक्त बनना यही मुक्ति का मार्ग है। संसार में रहते हुए हमें अनेकविध जीवों के सम्पर्क में आना पड़ता है, अतः पापी व क्रूर जीवों को देखकर, हमारे हृदय में द्वेष की भावना पैदा नहीं होनी चाहिये। उन जोवों की कर्म परिणति का विचार कर हमें मात्र उदासीन रह जाना है । यहाँ उदासीनता से तात्पर्य खेदग्रस्त बनना नहीं है, बल्कि उन क्रूर जीवों के प्रति उपेक्षा भाव, तटस्थ भाव, मौन भाव, मध्यस्थ भाव धारण करना है।
इस औदासीन्य (मध्यस्थ) भाव की प्राप्ति राग और द्वेष के निरोध से होती है।
राग और द्वेष के परिणामों से अपना मन चंचल हो जाता है, प्रात्म-स्थिरता समाप्त हो जाती है। राग-द्वेष की उपस्थिति में मध्यस्थ रहना शक्य नहीं है । राग-द्वेष के निरोध से ही प्रात्मा मध्यस्थ बन सकती है।
जिस प्रकार भयंकर गर्मी में लम्बी पद-यात्रा करने से व्यक्ति थककर चूर हो जाता है, बदन में से पसीना छूटने लगता है और सम्पूर्ण देह श्रमित हो जाता है। ऐसी स्थिति में यदि मार्ग में छायादार वृक्ष और ठण्डा जल मिल जाय तो व्यक्ति का श्रम दूर
शान्त सुधारस विवेचन-२१८