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सम्यग्दर्शन आदि गुणों की प्राप्ति सद्गुरु के संग से ही होती है ।
सद्गुरु वे हैं, जो स्वयं मोक्षमार्ग के साधक हैं और दूसरों को भी मोक्षमार्ग बताते हैं ।
गुरु के चयन में सावधानी रखना प्रत्यन्त अनिवार्य है । गुरु तो नाविक तुल्य है । नाविक यदि होशियार हो तो भयंकर संकट में भी वह नाव को पार लगा देगा और यदि नाविक होशियार नहीं है तो वह स्वयं डूबेगा और सभी को डुबो देगा |
भवसागर से पार उतरने के लिए सदगुरु का संग चाहिये । इसके साथ-साथ कुगुरु का त्याग भी अनिवार्य है ।
कुगुरु वे हैं जो मोक्षमार्ग से विपरीत आचरण और प्ररूपरणा करते हैं, वे स्वयं भवसागर में डूबते हैं और उनका जो भी श्राश्रय लेता है, उनको भी वे भवसागर में डुबोते हैं ।
इस संसार में गुरु का वेष पहने हुए तो बहुत मिलेंगे, परन्तु गुरु पद के लिए सुयोग्य साधु थोड़े हो मिलेंगे, अत: मात्र गुरु का वेष देखकर ही उन्हें अपनो जोवन नैय्या नहीं सौंप देने की है, बल्कि उनके जीवन की भी परीक्षा होनी चाहिये । वे मोक्षमार्ग के साधक और प्ररूपक होने चाहिये ।
हे भव्यात्मन् ! तू कुगुरु का त्याग कर और सद्गुरु का श्राश्रय कर, उनकी वाणी का श्रवण कर ! सद्गुरु की वारणी के श्रवण से आत्मा के वास्तविक प्रानन्द की अनुभूति होगी । O
शान्त सुधारस विवेचन - २०६