________________
कुमततमोभरमीलितनयनं
किमु पृच्छत पन्थानम् दधिबुद्धधा नर
जलमन्थानं,
किमु
1
निदधत मन्थानं रे ।। सुजना० २१२ ॥
अर्थ - कुमति रूपी अन्धकार से जिसके गए हैं, ऐसे कुगुरु को मार्ग क्यों पूछते हो ? भाजन में दही की बुद्धि से रवैया क्यों करते हो
?
विवेचन
नेत्र
मीलित हो
जल से परिपूर्ण
।। २१२ ।।
कुगुरु का संग छोड़ दो
क्या अन्धा व्यक्ति आपको मार्ग बता सकता है ? क्या अन्धे व्यक्ति का अनुसरण कर आप अपने गन्तव्य स्थल पर पहुँच सकते हैं ?
यदि नहीं तो फिर कुमत के अन्धकार से जो अन्ध बने हुए हैं, आत्मकल्याण के लिए श्राप उनका मार्गदर्शन क्यों ले रहे हैं ?
हे आत्मन् । कुमत के कदाग्रह से जिनकी बुद्धि कुण्ठित हो गई है, ऐसे दुष्टजनों का मार्गदर्शन तुम्हारा हित नहीं कर सकता है ।
जल में दही की कल्पना कर उस जल का मन्थन करने से क्या घी की प्राप्ति हो सकती है ? कदापि नहीं । इसी प्रकार जो ससार के भोग सुखों में प्रत्यन्त प्रासक्त हैं .... जिनके हृदय में संसार के भौतिक सुखों का तीव्र राग रहा हुआ है---जो ऐशो
शान्त सुधारस विवेचन - २०७