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सात इह कि भवकान्तारे , गद-निकुरम्ब-मपारम् अनुसरता हितजगदुपकारं , जिनपतिमगदङ्कारं रे ॥ सुजना० २१५ ॥
अर्थ-इस भवाटवी में अपार द्रव्य और भाव रोगों को तुम क्यों सहन करते हो? समस्त जगत् पर उपकार करने में दृढ़ प्रतिज्ञावन्त जिनेश्वरदेव रूप भाव वैद्य का अनुसरण करो, जिससे तुम्हारे समस्त द्रव्य और भाव रोग शान्त हो जायें और तुम्हें सुख प्राप्त हो ।। २१५॥
विवेचन जिनेश्वरदेव भाव-वैद्य हैं
हे भव्यात्मन् ! तू अनन्त शक्ति का पुञ्ज है। तुझ में अनन्त शक्ति रही हुई है। तू अक्षय-सुख का भण्डार है। तेरा जीवन शाश्वत है... परन्तु वर्तमान में तेरी यह दुर्दशा ? प्रोह ! रोटी के एक टुकड़े के लिए तू भीख मांग रहा है... थोड़ी सी धनसमृद्धि के लिए तू दीनता कर रहा है ? अहो ! इस प्रकार तेरा देह रोगों का शिकार बना हुआ है। तेरी यह कैसी दुर्दशा हो गई है ? तू दीन, हीन, रंक और दरिद्री अवस्था का अनुभव कर रहा है। ___ अहो ! तू इस प्रकार के द्रव्य और भाव रोगों से क्यों दुःखी हो रहा है ?
जगत् के उपकारी जिनेश्वरदेव का अनुसरण क्यों नहीं
शान्त सुधारस विवेचन-२१३