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श्रागम रूप अमृत का पान करो और उन्मार्ग की रचना से विषम विचार वाले प्रसार और मिथ्याशास्त्रों का त्याग करो ।। २१० ।।
विवेचन
श्रागम अमृत का पान करो
सुख प्राप्ति और दुःख - मुक्ति के लिए सभी प्राणी चारों ओर दौड़-धूप कर रहे हैं, परन्तु मार्ग की अनभिज्ञता के कारण वे अधिकाधिक नवीन दुःखों को ही प्राप्त करते हैं । सुख प्राप्ति व दुःखमुक्ति की इतनी अधिक उत्सुकता रहती है कि व्यक्ति का मन सदैव चंचल और अस्थिर ही रहता है |
अस्थिर चित्त वाले व्यक्ति की निर्णय शक्ति समाप्त हो जाती है, वह न तो वस्तु स्थिति को पूर्णरूपेण समझ सकता है और न ही किसी बात का निर्णय ले सकता है ।
पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी म. ने 'ज्ञानसार' में कहा है
वत्स ! कि चञ्चलस्वान्तो, भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा विषीदसि ? निधि स्वसन्निघावेव, स्थिरता दर्शयिष्यति ||
हे भव्यात्मन् ! चंचल चित्त वाले बनकर तुम इधर-उधर क्यों भटक रहे हो ? तुम जिस धन को खोज रहे हो, वह तो तुम्हारे पास ही है, तुम कुछ स्थिर बनो, वह स्थिरता ही तुम्हें वह निधि बता सकेगी ।
कई बार हम देखते हैं कि व्यक्ति का मन जब अत्यन्त
शान्त सुधारस विवेचन - २०३