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पेट तृप्त हो जाय तो फिर पेटी की चिन्ता रहती है ।
इस पेट की भूख को तो रोटी के टुकड़े से शान्त किया जा सकता है, परन्तु मन की भूख ऐसी है कि वह कभी शान्त नहीं होती है। 'जहा लाहो तहा लोहो' की प्रागमोक्ति के अनुसार ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता ही जाता है।
राजा ने कपिल पुरोहित को कहा-'जो चाहे, वह मांग ले।'
बस, प्रारम्भ में तो कपिल पुरोहित की इच्छा मात्र दो सोना मोहर पाने की ही थी, परन्तु ज्यों ही उसे यह वरदान मिला कि उसकी इच्छाएँ हवा की तरह फैलने लगी और लाखों करोड़ों सोना मोहर में भी उसे अतृप्ति का ही अनुभव होने लगा। लोभ की कोई सीमा नहीं है, वह असीमित है। ज्योंज्यों लाभ मिलता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता ही जाता है।
क्षुधा-तृप्ति के बाद मनुष्य की आकांक्षाओं का जाल वस्त्र, घर और अलंकारों की ओर फैलने लगता है। उसके हृदय में नवीन, कीमती और नई फैशन के वस्त्र पाने की इच्छा पैदा होती है और उसके लिए वह दिन-रात धनार्जन आदि में व्यस्त रहता है।
वस्त्र आदि की प्राप्ति के अनुरूप धन मिल जाय, फिर भी उसे तृप्ति कहाँ है ? उसके बाद उसके हृदय में 'अपना मकान' बनाने की इच्छा पैदा होती है। परन्तु उसे कहाँ पता है कि जिसे अपना-अपना कह रहे हो, वह तो यहीं रह जाने वाला है और तुम्हें अकेले ही यहाँ से विदाई लेनी पड़ेगी।
शान्त सुधारस विवेचन-१८६