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जिनके महलों में, हजारों रंग के फानूस जलते थे।
उनकी कब्रों का प्राज, निशां भी नहीं।
जिस प्रकार एक महल के निर्माण में कई वर्ष लगते हैं, किन्तु उसे धराशायी होने में कोई समय नहीं लगता है, उसी प्रकार सुख के साधन जुटाने में वर्षों लग जाते हैं, किन्तु मृत्यु, शत्रु का आक्रमण, दंगा, रोग आदि उस सुख के साधन को क्षरण भर में समाप्त कर देते हैं, यही तो इस संसार की विचित्रता
स्पर्धन्ते केऽपि केचिद्दधति हृदि मिथो मत्सरं क्रोधदग्धा , युध्यन्ते केऽप्यरुद्धा धनयुवतिपशुक्षेत्रपद्रादिहेतोः । केचिल्लोभाल्लभन्ते विपदमनुपदं दूरदेशानटन्तः , कि कुर्मः किं वदामो भृशमरतिशतैाकुलं विश्वमेतत् ॥२०४॥
(स्रग्धरा) अर्थ-यहाँ कई परस्पर स्पर्धा करते हैं, कई क्रोध से दग्ध बने एक-दूसरे की ईर्ष्या करते हैं; कई धन, युवती, पशु, क्षेत्र तथा ग्रामादि के लिए निरन्तर लड़ते रहते हैं तथा कई लोभ के वशीभूत होकर दूर देशान्तर में भटकते हुए स्थान-स्थान पर क्लेश पाते हैं। इस प्रकार अनेकविध उद्वेग-संक्लेश से यह सम्पूर्ण विश्व व्याकुल बना हुआ है ।। २०४ ।।
विवेचन संसार : संक्लेश का अखाड़ा है
अहो ! इस संसार में जीवात्माएँ किस प्रकार प्राकुलव्याकुल बनी हुई हैं ?
शान्त सुधारस विवेचन-१६१