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कर देती है। ईर्ष्या से सन्तप्त प्राणी राख से ढके हुए, अंगारे के समान है, जो अन्दर ही अन्दर जल रहे होते हैं। __ हे आत्मन् ! तू अन्य की गुण-समृद्धि को देखकर प्रसन्न बन।
दिष्ट्याऽयं वितरति बहुदानं , वरमयमिह लभते बहुमानम् । किमिति न विमृशसि परपरभागं , यद्विभजसि तत्सुकृतविभागम् ॥ विनय० १६५ ॥
अर्थ-कोई पुण्यशाली व्यक्ति बहुत दान देता है, तो कोई भाग्यशाली बहुत मान पाता है। यह सब अच्छा है।' इस प्रकार तू दूसरे के उज्ज्वल भाग को क्यों नहीं देखता है ? इस प्रकार सुन्दर विचार करने से उसके सुकृत का भाग तुझे भी प्राप्त हो जाएगा। १६५ ॥
विवेचन गुणानुमोदन से सुकृत में सहभागी बनते हैं
पूज्य वीरविजय जी म. ने गाया हैकरण, करावण ने अनुमोदन, सरखा फल निपजावे रे।
कोई व्यक्ति अपनी शक्ति अनुसार शुभ कर्म करता है, कोई व्यक्ति अन्य को सुकृत करने की प्रेरणा करता है और एक व्यक्ति जो स्वयं सुकृत करने में असमर्थ है, वह अन्य के सुकृत की
शान्त सुधारस विवेचन-१७३