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चतुर्दशभावनाष्टकम्
विनय ! विभावय गुणपरितोषं , विनय ! विभावय गुणपरितोषम् । निज - सुकृताप्तवरेषु परेषु , परिहर दूरं मत्सरदोषम् ॥ विनय० १६४ ॥
अर्थ-हे विनय ! गुणों के द्वारा तू आनन्द/परितोष को धारण कर और अपने सुकृत के बल से जिन्हें श्रेष्ठ वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, ऐसे अन्य पुण्यवन्त प्राणियों के प्रति द्वेष भाव मत कर । मत्सर भाव का त्याग कर ।। १६४ ।।
विवेचन ईर्ष्या मत करो! गुणों की अनुमोदना करो
हे आत्मन् ! अन्य गुणोजनों के गुण आदि को देखकर तू प्रसन्न बन । इस दुनिया में जिन-जिन आत्माओं को जो-जो सुखसमृद्धि प्राप्त हुई है, यह सब उनके पूर्वकृत सुकृतों का ही परिणाम है। अतः हे आत्मन् ! उन आत्माओं की सुख-समृद्धि को देखकर तू ईर्ष्या मत कर। हृदय में मत्सर भाव को धारण मत कर।
ईर्ष्या एक ऐसी आग है, जो अपने सुकृत को जलाकर नष्ट
शान्त सुधारस विवेचन-१७२