________________
रे कर्ण ! तुम जिनवाणी और अन्य की कीर्ति-प्रशंसा आदि के श्रवण में प्रसन्न बनो।
ए आँखो! तुम अन्य की सुख-समृद्धि को देखकर प्रसन्न बनो।
प्रमोदमासाद्य गुरणः परेषां ,
येषां मतिर्मज्जति साम्यसिन्धौ । देदीप्यते तेषु मनःप्रसादो, गुणास्तथते विशदीभवन्ति ॥ १६३ ॥
(उपजातिवृत्तम्) अर्थ-अन्य पुरुषों के सुयोग्य गुणों से प्रमोद पाकर जिनकी बुद्धि समता रूपी समुद्र में मग्न बनी है, उनमें मनःप्रसन्नता उल्लसित बनती है। गुणों की प्रशंसा से वे गुण अपने जीवन में भी विकास पाते हैं ।। १६३ ।।
विवेचन गुरणानुमोदन से गुण-प्राप्ति
जो व्यक्ति अन्य के गुणों को देखकर प्रसन्न होते हैं और जिनकी बुद्धि समता रूपी सागर में मग्न रहती है, वे प्रात्माएं मनःप्रसन्नता प्राप्त करती हैं।
ईर्ष्यालु व्यक्ति का मन सदैव उद्विग्न रहता है, उसे ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं कर सकते हैं। वह तो अन्य की छोटी-मोटी भूलों को देखकर जलता ही रहता है। उसे अन्य में रहे गुण
शान्त सुधारस विवेचन-१७०