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अपने शीलव्रत का भंग नहीं किया था और अन्त में उन्होंने अपराधी का नाम बताने से भी इन्कार कर दिया था। 'मेरे निमित्त से किसी जीव को पीड़ा न पहँचे ।' यह उनके जीवन का मुद्रा लेख था। राजा के द्वारा पूछने पर भी उन्होंने महारानी का अपराध प्रगट नहीं किया था; धन्य है उस महान् मात्मा को।
इस जिनशासन में ऐसे अनेक व्रतधारी श्रावक व सद्गृहस्थ हैं, जो विकट, प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने व्रत का भंग नहीं करते हैं और अपने ग्रहण किए हुए व्रत का पूर्णतया पालन करते हैं।
भूतकाल के इतिहास में ऐसे अनेक सद्गृहस्थ हो गए हैं, जिन्होंने अपने जीवन की बलि देकर भी शीलव्रत की रक्षा की है। उन महान् सद्गृहस्थों का निर्मल यश इस संसार में फलेफूले पाम्रवृक्ष की भाँति विलसित है।
हे आत्मन् ! तू उन महान् आत्माओं का बारम्बार नाम स्मरण कर। उनके गुणों का कीर्तन कर और उनकी गुणसमृद्धि की हृदय से अनुमोदना कर, यही तेरे विकास का श्रेष्ठ उपाय है।
या वनिता अपि यशसा साकं , कुलयुगलं विदधति सुपताकम् । तासां सुचरितसञ्चितराकं , दर्शनमपि कृतसुकृतविपाकम् ॥ विनय० १९६ ॥
शान्त सुधारस विवेचन-१७६