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दुर्लभता से प्राप्त मानव जीवन की सार्थकता को बतलाते हुए फरमाते हैं कि इस जीवन की वास्तविक सफलता अन्य में रहे गुणों के अनुमोदन करने में ही है । आज तक दोषदृष्टि के कारण हमारी श्रात्मा ने सर्वत्र अवगुरणों का ही दर्शन किया है । महान् गुरणी आत्माओं में भी हमने अनेक बार दोषारोपण किया है, परन्तु अब हमें वह दोषदृष्टि बदल देनी होगी और आज से हमें गुणग्राही बन जाना है, जहाँ-जहाँ भी थोड़ा भी गुरण दिखाई दे, उसका हृदय से बहुमान करना चाहिये उस गुण की अनुमोदना करनी चाहिये ।
इस प्रकार गुरणीजनों के गुण की अनुमोदना करने से हमारी आत्मा में भी गुरणों का संचय होने लगेगा ।
यह प्रमोद भावना एक प्रकार का शान्त सुधारस / अमृत है । जिस प्रकार अमृत के पान से तृप्ति, तुष्टि व पुष्टि का अनुभव होता है, उसी प्रकार प्रमोद भावना के भावन से हमारी आत्मा तृप्त बनती है । अनादि की कुवासनाएँ शान्त हो जाती हैं और श्रात्मिक गुरणों की पुष्टि होने लगती है ।
इसी में मानव-जीवन की सफलता है । हे श्रात्मन् ! तू निरन्तर इस भावना से भावित बन ।
शान्त सुधारस विवेचन- १८३