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गुणानुराग/प्रमोद भावना अनिवार्य है। गुरण के अनुराग बिना
आत्मगुरणों का विकास सम्भव नहीं है। परन्तु इस संसार में 'ईर्ष्या' एक ऐसा तत्त्व है, जो जीवात्मा के गुणानुरागी बनने में अत्यन्त बाधक है। ईर्ष्यालु व्यक्ति पर के उत्कर्ष को सहन नहीं कर पाता है।
व्यक्ति को जितना अानन्द स्व-प्रशंसा, स्व-मान और स्वकीति के श्रवण आदि में आता है, उतना आनन्द उसे अन्य की प्रशंसा आदि सुनने में नहीं पाता है। इस सन्दर्भ में एक घटना याद आ जाती है।
• किसी नगर में हरिशंकर नामक व्यक्ति रहता था। उसकी स्थिति अत्यन्त सामान्य थी। नगर के बाहर किसी चमत्कारी यक्ष का मन्दिर था। हरिशंकर ने सोचा-"बड़ी कठिनाई से दिन गुजर रहे हैं, तो क्यों न मैं उस यक्ष को प्रसन्न करूं ?" ऐसा विचार कर वह पूजा की सामग्री लेकर यक्षमंदिर में चला गया। उसने अत्यन्त भक्तिपूर्वक यक्ष की पूजा की। इस प्रकार वह निरन्तर ७ दिन तक उस यक्ष की पूजा करता रहा ।
सातवें दिन यक्ष प्रसन्न हो गया। यक्ष ने कहा-"तुम्हारी सब कामनाएं पूर्ण होंगी, परन्तु तुम्हें जितना मिलेगा, उससे दुगुना तुम्हारे पड़ोसी 'रविशंकर' को मिलेगा।"
रविशंकर की बात सुनकर हरिशंकर विचार में पड़ गया-"अहो ! उसे मुझ से दुगुना ?"
___ संसार की यह कितनी विचित्रता है ! उसे स्व सुख में जितना आनन्द है, उतना अन्य के सुख में नहीं है ।
शान्त सुधारस विवेचन-१४६