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इन आठ स्थानों से स्वर-व्यंजनों का उच्चारण होता है। ग्रन्थकार महर्षि फरमाते हैं कि इस जीवन में वारणी के उन आठ उच्चार-स्थलों की सफलता उन अनन्तज्ञानी परमात्मा के गुणकीर्तन में ही है।
किसी स्तवनकार ने कहा है'जे जीभ जिनवर ने स्तवे, ते जीभ ने पण धन्य छ।
जिस जीभ ने परमात्मा के गुणों का स्तवन नहीं किया, वह जीभ हकीकत में जीभ नहीं है, बल्कि जड़ ही है। अर्थात् वह जीभ व्यर्थ है, जिस जीभ से परमात्मा की स्तवना नहीं होती।
निर्ग्रन्थास्तेऽपि धन्या गिरिगहनगुहागह्वरान्तनिविष्टाधर्मध्यानावधानाः समरससुहिताः पक्षमासोपवासाः । येऽन्येऽपि ज्ञानवन्तः श्रुतविततधियो दत्तधर्मोपदेशाः , शान्ता दान्ता जिताक्षा जगति जिनपतेः शासनं
भासयन्ति ।। १८६॥
(स्रग्धरावृत्तम्) अर्थ-पर्वत, जंगल, गुफा तथा निकुज में रहते हुए धर्मध्यान में दत्तचित्त रहने वाले, शमरस से सन्तुष्ट, पक्ष और मास (क्षमण) जैसे विशिष्ट तप करने वाले (महामुनियों को) तथा श्रुतज्ञान से विशाल बुद्धि वाले, उपदेशक, शान्त, दान्त और जितेन्द्रिय बनकर जो प्रभु-शासन की प्रभावना करते हैं, उन निर्ग्रन्थ मुनियों को भी धन्य है ।। १८६ ॥
शान्त सुधारस विवेचन-१५८