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शेष लोककथा के कार्य में वाचाल बनी जीभ को मैं जड़ ही समझता हूँ ॥ १८८ ।।
विवेचन जीभ की सफलता किसमें ? ___घातिकर्मों के क्षय से परमात्मा में अनेक गुणों का आविर्भाव हुआ है। उन समस्त गुणों का कथन या वर्णन इस लेखनी द्वारा अशक्य असम्भव है। कोई केवलज्ञानी भी तीर्थंकर परमात्मा के समस्त गुणों का वर्णन करने में असमर्थ है, तो फिर अपनी तो ताकत ही क्या है ?
कलिकालसर्वज्ञ जैसे महर्षि भी प्रभुस्तवना के लिए अपने आपको पशुतुल्य मानते हैं। उन्होंने लिखा है
क्वाहं पशोरपि पशुर्वीतरागस्तव क्व च ? फिर भी इस जीवन में इस जिह्वा की सफलता परमात्मा के गुण-कीर्तन में ही है। महान् पुण्योदय से हमें इस जिह्वा की प्राप्ति हुई है। जिह्वा तो पशुओं को भी मिली है, परन्तु वे जीभ से एक ही काम करते हैं-खाने का। परन्तु मनुष्य उस जिह्वा के द्वारा अपने भावों को अभिव्यक्त कर सकता है ।
परमात्मा की गुण-स्तवना से बढ़कर इस जिह्वा का सच्चा सदुपयोग और क्या हो सकता है ?
वारणी के उच्चारण में जिह्वा के साथ-साथ अन्य स्थानों की भी आवश्यकता रहती है। वाणी के उच्चारण-स्थल पाठ हैं-कण्ठ, तालु, मूर्धन्, दंत, प्रोष्ठ, जिह्वा, उर और नासिका।
शान्त सुधारस विवेचन-१५७