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अर्थ-जो सुश्रावक दान, शील और तप का आसेवन करते हैं और सुन्दर भावना का भावन करते हैं इस प्रकार ज्ञान से पुष्ट श्रद्धा से चारों प्रकार के धर्म की आराधना करते हैं, तथा जो साध्वोगण और श्राविकाएँ ज्ञान से निर्मल बुद्धि द्वारा शील/ सदाचार का पालन करती हैं, वे भी धन्यवाद के पात्र हैं। इन सब की हमेशा अनेक बार जो गर्वरहित भाग्यवन्त स्तुति करते हैं, वे भी धन्यवाद के पात्र हैं ।। १६० ॥
विवेचन जिनाज्ञापालक श्रावक भी धन्यवाद के पात्र हैं
साधु महात्माओं के सुकृतों की अनुमोदना के बाद अब इस गाथा के द्वारा गृहस्थ श्रावक-श्राविका तथा साध्वीजी म. के सुकृतों की अनुमोदना करते हुए ग्रन्थकार महर्षि फरमाते हैं कि उन श्रावकों को धन्य है जो ज्ञानपूर्वक सुदृढ़ श्रद्धा के द्वारा दान, शील, तप और भाव धर्म की आराधना करते हैं।
धन्य है श्रेयांसकुमार को, जिन्होंने ऋषभदेव प्रभु को इक्षुरस से पारणा कराकर सुपात्रदान का मंगल प्रारम्भ किया था।
धन्य है धन्ना सार्थवाह को, जिसने त्यागी महामुनियों को घी बहोरा कर सम्यक्त्व प्राप्त किया था।
धन्य है मेघरथ राजा को, जो एक कबूतर की रक्षा के लिए अपने देह का मांस देने के लिए तैयार हो गए थे।
धन्य है शालिभद्र को, जिसने अपने पूर्व भव में क्षोर का सुपात्र दान कर पुण्यानुबन्धी पुण्य का अर्जन किया था।
शान्त सुधारस विवेचन-१६३