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धन्य है शालिभद्र महामुनि को, जिन्होंने पादोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया था।
धन्य है सुन्दरी को, जिसने दीक्षा की अनुमति न मिलने पर ६०,००० वर्ष तक निरन्तर आय बिल तप की उग्र तपश्चर्या की थी।
धन्य है पूरिणया श्रावक को, जो अत्यन्त ही भावपूर्वक सामायिक धर्म की आराधना करते थे।
धन्य है जीर्ण श्रेष्ठि को, जिसके हृदय में प्रभु को पारणा कराने की अपूर्व भावना थी।
धन्य है सुलसा श्राविका को, जो दैविक परीक्षा में भी अपने सम्यक्त्व से चलित नहीं हुई थी।
धन्य है श्रेणिक महाराजा को, जिनके हृदय में जिनशासन के प्रति गाढ़ प्रीति थी।
उन साध्वीजी म. को भी धन्य है, जो निर्मल शील के पालन के साथ-साथ संयम के पालन में प्रयत्नशील रहती हैं और स्वाध्याय आदि की साधना के द्वारा सतत कर्मनिर्जरा की प्रवृत्ति करती रहती हैं।
धन्य है उन महान् सतियों को, जिन्होंने मरणांत उपसर्ग में भी अपने शील को खण्डित नहीं होने दिया।
लग्न के साथ २२ वर्ष तक अंजना सती को अपने पति का वियोग रहा, फिर भी उस महासती के हृदय में अपने पति के प्रति तनिक भी दुर्भाव पैदा नहीं हुआ।
शान्त सुधारस विवेचन-१६५