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वे लेश भी कर्म का बन्ध नहीं करते हैं, बल्कि उन कर्मों की निर्जरा ही करते हैं, अर्थात् उनके जीवन में ज्वलन्त वैराग्य होने से वे हर प्रकार की प्रवृत्ति के द्वारा कर्मों की निर्जरा ही करते हैं।
दीक्षा अंगीकार करने के बाद जब परमात्मा ध्यान में लीन बनते हैं, तब उनकी ध्यान-साधना भी अपूर्व होती है। वे घंटों निरन्तर ध्यान में लीन रहते हैं।
भयंकर उपसर्गों में भी वे अपनी ध्यान-धारा से चलित नहीं होते हैं।
संगमदेव ने एक ही रात्रि में भगवान महावीर पर भयंकर उपसर्ग बीस बार किए थे "यहाँ तक कि उसने प्रभु पर 'कालचक्र' भी फेंक दिया था""परन्तु फिर भी वह देव भगवान महावीर को ध्यान से चलित नहीं कर सका।
भगवान महावीर ने दीक्षा ग्रहण करने के बाद १२३ वर्ष तक त्याग-तप और ध्यान की साधना की। इन १२३ वर्षों में भगवान महावीर एक अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण ही निद्राधीन (प्रमादावस्था) रहे, शेष समस्त काल उन्होंने शुभ-ध्यान में बिताया था।
निर्मल शुक्लध्यान की धारा पर आरूढ़ होकर जब परमात्मा ने समस्त घातिकर्मों का क्षय कर दिया, उसके साथ पूर्व के तीसरे भव में उपाजित 'तीर्थंकर नामकर्म' उदय में प्रा गया। इस नामकर्म के प्रभाव से परमात्मा के ३४ अतिशय और उनकी वाणी के ३५ अतिशय प्रगट हो गए हैं।
शान्त सुधारस विवेचन-१५५